वो ख़त पुराने से
मुमताज़ बाजी आज सुबेरे से अपनी पिटारी खोल कर बैठी थीं। अंजुमन, उनकी नवासी, जो अपनी अम्मी के गुज़र जाने के बाद उनके साथ ही रहती थी, भी हैरान हो कर जंगले से उन्हें ही देखे जा रही थी। उसे नहीं मालूम था कि नानी आज सुबेरे सुबेरे अपनी पिटारी खोल कर क्यों बैठ गयी हैं? ना तो आज उन्होंने फ़जर की नमाज़ पढ़ी और ना ही अभी तक गुसलखाने गयीं। अब वो कबसे सांकल बजाये जा रही है, पर... नानी तो लगता है कि किसी और ही मुल्क़ की सैरो सवारी में मशगूल थीं। उन्हें सुनाई भी थोड़ा ऊँचा देता था। वो ज़ोर से उन्हें आवाज़ देती रही मगर उसने उनके हाथों में एक ख़त को देखा तो वो चुप हो गयी। पुरानी पिटारी से निकाले हुए ख़त का मतलब भी... 'तो अब जरूर नानी किसी आदमक़द सी याद में गुमी हुई हैं...', उसने सोचा। वो उन्हें वैसे ही छोड़ वापस रसोईघर में चली गयी। आखिर उसे भी समझ आ गया था कि माजी में गुमें हुए इंसान की कश्ती तेज लहरों में सवार होती है। उसे किसी तेज हवा का झोंका डूबा सकता है और वो ऐसा नहीं करना चाहती थी। "ख़ैर उन्हें इस वक़्त अल्लाह की इबादत से ज्यादा तन्हाई की जरुरत है...", उसने अपने आप से कहा।
3 घंटे के बाद वो अपने कॉलेज के लिए तैयार होकर बुर्का हाथों में लिए वापस जंगले के पास गयी तो उसने देखा की नानी बेहद मोहब्बत भरी निगाहों से एक तस्वीर को देखे जा रही थीं। नानी की निगाहों से ही उसने समझ लिया था कि ये निगाह वो निगाह थी जो एक अधूरी मोहब्बत की तस्वीर को ही ऐसी हसरत से देख सकती थी। मग़र उनके चेहरे का सुकून कुछ और ही बयाँ कर रहा था। उसके लिए ये एक उलझी सी पहेली थी जिसे वो इत्मिनान से सुलझाना चाहती थी। मग़र सेहन से आती आवाज़ों ने उसे इन ख्यालों से निकाल दिया।बानी और सुरैया उसे आवाज़ देती हुई बुला रही थीं। उसको अब कॉलेज के लिए निकलना था और नानी अभी तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थीं। उनको ख़बर किये बग़ैर वो कैसे जाती? इसलिए उसने नानी के दुपट्टे से एक पुर्जा लिख कर बाँध दिया। वो जानती थी कि नानी जब भी कमरे से बाहर निकलेंगी तो दुआ पढ़ने के लिए सबसे पहले दुपट्टे को ही हाथ लगाएंगी। उसने सेहन के दरवाजे पे कुण्डी लगायी और बुर्क़ा ओढ़ कर सहेलियों के साथ कॉलेज के लिए निकल गयी।
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"बाजी आज दिखाई नहीं दीं? हम तो सोच रहे थे कि तूने फिरसे तैयार होने में लेट कर दी होगी और वो तेरे नाम से दुआ पढ़ रही होंगी..", रस्ते में बानी ने पूछा। अंजुमन की सहेलियाँ भी जानती थीं की उसकी नानी हमेशा उसके अच्छे सगुन के लिए दुआ पढ़ती रहती थीं। और फिर वो दोनों अंजुमन के चेहरे को देख देख कर हँसा करती। उसकी नानी ना सिर्फ उनके लिए बल्कि पूरे मोहल्ले के लिए 'मुमताज़ बाजी' थीं।
"पता नहीं.... आज सुबेरे से वो अपनी पिटारी खोल कर बैठी हैं। उन्हें मैंने कई दफ़े आवाज़ दी मग़र वो सुन ही ना सकीं। जाने किन ख्यालों में वो आज खोयी हैं कि ना उन्होंने नमाज़ पढ़ी और ना ही...." अंजुमन की इस बात से वो दोनों भी हैरान हुयीं। उन्होंने उससे उनकी पिटारी के बारे में पूछा जिसे लेकर वो इस क़दर दुनिया से जुदा हो गयी थीं। अंजुमन उन्हें पूरी बात नहीं बता सकी थी कि उसने उनके हाथों में एक ख़त और एक तस्वीर को भी देखा था। वो खुद भी तो ठीक तरीके से नहीं जानती थी कि उनकी पिटारी में ऐसा क्या था जिसे लेकर नानी उसे भूल गयी थीं। सच पूछो तो वो उनकी पिटारी को जब भी देखती थी उसके मन में ये जरूर आता था कि वो नानी से उसके बारे में पूछे। उनके पास कुछ ज्यादा सामान तो नहीं था और नानी भी कहाँ रोक टोक करती थीं। वो हर चीज़ अपनी मर्ज़ी से छू सकती थी, सवाल कर सकती थी। नानी भी तो किसी चीज़ के लिए उसे मना भी नहीं करती थीं। उनके पास उसके हर सवालों के जवाब होते थे। पर ऐसा क्यों था कि वो खुद ही उस पिटारी को छू ना सकी थी और चाह कर भी उनसे कुछ पूछ ना सकी थी। लेकिन आज उन ख़तों को पढ़ते हुए उन्हें देख कर उसने मन ही मन तय कर लिया था कि वो उनसे इस बारे में जरूर पूछेगी। नानी की ज़िन्दगी के उस पहलू के बारे में जानना उसके लिए जरुरी हो गया था। वो ये सब सोच ही रही थी कि तभी बानी ने उसे कोहनी मार कर कुछ कहना शुरू कर दिया।
"अंजू... सूरी... वो देख उधर... आज भी गुरप्रीते का बच्चा खड़ा है...मुझे समझ नहीं आता कि ये बेशरम अपनी हरकतों से बाज क्यों नहीं आता?" बानी ने हिक़ारत से उसकी तरफ़ देखा। सुरैया ने भी वैसा ही किया मग़र अंजुमन बिना कुछ बोले नज़र सामने रखते हुए चलती रही। वो जानती थी कि वो अक्सर उसे ही देखने के लिए ही नुक्कड़ के आगे खड़ा हो जाता था। बानी और सुरैया उसे जी भर के कोसती जा रही थीं मग़र उसने कुछ भी बोलना जरुरी नहीं समझा। उसके लिए उस ग़ैर मर्द की आँखों में देखना भी मुनासिब नहीं था। उसकी मँगनी हो चुकी थी। कॉलेज का ये आख़िरी साल ख़त्म होते ही उसका निक़ाह गाज़ीपुर के रहने वाले असग़र मियाँ के बेटे से हो जाना था, जिसे वो जानती भी नहीं थी। ये रिश्ता उसकी अम्मी के इंतकाल के बाद उसके चचा ने तय किया था, जिन्हें वो कभी अपना चचा नहीं मान सकी थी। नानी के साथ रहते हुए भी उसकी ज़िन्दगी के अहम फ़ैसलों पर अब उनका ही हक़ था। क्यों कि अब्बा के ना होने पर वो ही उसके मेहरम थे। और यही बात उसे नागवार गुजरती थी। जब उसके अब्बा का इंतकाल हुआ था, तब वो अम्मी के पेट में ही थी। चचा ने अम्मी से निक़ाह करने के लिए अपनी जूतियां उनकी चौखटों पे घिस डाली थीं। मग़र अम्मी के इनकार और उसे पैदा करने के ज़ुर्म में उन्होंने उन लोगों को दर दर का मुहताज बना दिया था। अम्मी चचा के संग ब्याह करके आराम की ज़िन्दगी गुज़ार सकती थीं। लेकिन अम्मी अपनी औलाद को अपने से अलग कर अपना नया घर नहीं बसा सकती थीं। नए शौहर और औलाद के बीच चुनने की मज़बूरी ने उन्हें दर दर की ठोकरें खाने को मज़बूर कर दिया था क्योंकि औरत का एक मर्द को इनकार करना एक बहुत बड़ा गुनाह था। अब वो बीस साल की हो चुकी थी और पिछले चार सालों से नानी के पास ही रह रही थी। नानी के बारे में उसे अम्मी की मौत से कुछ दिन पहले तक मालूम ही नहीं था। अम्मी ने भी उनके बारे में उसे तब जाकर ही बताया, जब उन्हें लगा कि वो और नहीं जी सकेंगीं। उनके कहने से ही वो नानी के पास यहाँ दिल्ली रहने को आई थी। वो तब इतनी समझदार नहीं थी कि अम्मी से कई तरह के सवाल कर पाती। इधर कुछ दिनों से उन सवालों के बारे में शिद्दत से सोचा करती है और नहीं जानती कि उन सवालों को लेकर वो किसके पास जाये? नानी की मोहब्बतें, उनकी इबादतें उसे हैरान करती और वो सोचतीं कि अम्मी ने उनके बारे में उसे क्योंकर नहीं बताया? वो नानी से भी कुछ पूछ नहीं पाती थी। उनकी मोहब्बत में वो अजीब सा सुकून पाती थी और वो नहीं चाहती थी कि ये सुकून किसी भी तरह के सवालों से बिखर जाये। उसे लगता था कि नानी की मोहब्बतें बाकि किसी भी सच से हज़ार गुना बढ़कर है।
मग़र ये मोहब्बत का एहसास शायद केवल नानी की तरफ़ से ही नहीं था...। कोई और भी था जिसकी निगाहें उसके दिल में चुभती महसूस होती थीं। वो चाह कर भी एक दफ़े भी उसमें झांक कर उसकी सच्चाई को परखने की कोशिश नहीं कर सकी थी, जिसे उसकी सहेलियाँ हमेशा आवारा, शोहदा और छिछोरा कहा करती थीं। उसके मन में भी ये ख्याल आता था कि वो भी उसे देख कर ये मालूम कर सके कि वो कितना आवारा और बेशर्म है? जबकि वो जानती है कि उसकी नज़र कभी उसकी तरफ़ उठने वाली नहीं है.....
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