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मजबूरियाँ

मुमताज़ बाजी सुरैया के घर बैठी चाय पी रही थीं। उन्हें बड़ी हिचक हो रही थी वहाँ यूँ बैठे चुपचाप उनकी मेहमाननवाजी को लेते हुए। मगर वो वहाँ सुरैया के लिए आई थीं तो खुद को संभालें रखना तो जरुरी था।सुरैया के अब्बा मौलवी होने के नाते बेहद क़ायदा परस्त थे और उसकी अम्मी मज़हबी उसूलों की उतनी ही पाबंद थीं। उनके सामने वो हमेशा खुद को छोटा महसूस करती आयी थीं भले ही उम्र में वो उनसे ऊँचा दर्जा रखती थीं। उस पर उन लोगों को हिदायतें देना, ये कम मुश्किल भरा काम ना था। जबकि उनसे पूरा मोहल्ला सलाहें लेता था।लेकिन उनकी हिम्मत इस बात पे बंधी हुई थी कि शायद वो उन लोगों को मज़हबी भरोसे का ही सहारा लेकर सुरैया के हक़ की बात समझा सकती थीं।

"बेग साहब कब तक लौटेंगे?", उन्होंने चाय का प्याला रखते हुए पूछा। सुरैया की अम्मी वही थोड़े दूर खड़ी मूसलों को चला रही थीं। ये मूसलों की तेज आवाज़ थी या बाहर सड़क से आती आवाज़ें थीं कि उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उनके चेहरे से ऐसा मालूम पड़ता था जैसे उन्हें इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं है।

"बानो बीबी! मैं तुमसे पूछ रही हूँ। बेग साहब तो जाने क्या तय कर बैठे हैं? पर जरा तुम्हीं बताओ ये तुम लोगों ने क्या किया? उस मासूम की पढ़ाई बीच में छुड़ा दी? उसकी मर्ज़ी के बग़ैर तुम उसके साथ ऐसा कैसे कर सकते हो? मैं तो समझती थी कि तुम लोग इस्लामी कायदों को पूरी शिद्दत से मानते हो...", बाजी आखिर चुप ना रह सकी थीं। उन्हें सुरैया की अम्मी की बेरुखी बेहद हैरान कर रही थी। वो समझ नहीं पा रही थी कि एक माँ हो कर वो कैसे अपने औलाद की मर्ज़ी के लिए इस क़दर उदासीन रह सकती हैं। उन्हें कम से कम सुरैया की तरफ़ से तो अपने शौहर से बात करनी चाहिए थी। इतना तो जानती थीं वो कि घरों के फैसले मर्दों के फ़ैसले ही होते हैं, जिसे उनकी बीवियाँ चाह कर भी बदल नहीं सकती थीं। मगर कोशिश करना तो बनता ही था। अब अगर इस फ़ैसले में वो भी शौहर का ही साथ देंगी तो औलाद की कौन सुनेगा?

"कायदें अपनी जगह हैं पर दुनियादारी भी तो कुछ है। आज जो रिश्ता हुआ है, वो खुद अपने पैरों पे चलकर आया है। और सबसे बड़ी बात लड़के ने खुद सुरैया को पसंद किया है। बड़े ही इबादत परस्त हैं वो लोग। साथ ही लड़का भी अच्छे ओहदे पर है। इससे ज्यादा हमें और क्या चाहिए?वैसे भी इसकी शकल सूरत जैसी है, ऐसे में ये रिश्ता आना भी एक बड़ी बात है।", आख़िरकार उन्होंने जवाब दिया। उनकी आवाज़ में बेज़ारी थी और ऐसा लगता था जैसे वो किसी फ़िज़ूल से सवालों को सुन रही हों। बाजी को उनकी बातों पे बड़ा रंज हुआ। उनकी आवाज़ ना चाहते हुए भी तल्ख़ हो गयी,"क्या बात करती हो बानो बीबी? माशाल्लाह... कैसी सुघड़ औलाद है तुम्हारी.. उसमें कमी ही क्या है? वो तो लाखों में एक है। इतनी जहीन और अकलमंद औलादें नसीबवालों को ही मिला करती हैं।"

"अब बाजी रहने भी दें आप। अकलमंद और जहीनों के साथ कोई गिरस्ती नहीं करता। शौहर को बीवी की अकलमंदी नहीं उसकी खूबसूरती और उसके हाथ की रसोई ही चाहिए। और कितना भी आप कह लें पर आपकी अंजुमन जैसी शकलो सूरत तो नहीं है उसकी। ना कद है, ना ही बदन पे मांस चढ़ता है। रंग भी दबा दबा सा ही है। हम तो इसी ख़ातिर हर दिन फ़िक्र में गुजार रहे थे। हमें इसका रिश्ता कहीं भी मोटे जहेज़ और मिन्नतों के बिना हो पाने की उम्मीद ना थी।". बाजी उनकी बातों का क्या जवाब देतीं। दुनियादारी के चालों चलन का उन्हें भी पता था। लेकिन इसके पीछे औलाद के साथ जबरदस्ती तो नहीं की जा सकती थी।

"सुरैया की मर्ज़ी भी तो जरुरी है ना!उसकी पढ़ाई तो नहीं..." बाजी कुछ और भी कहतीं लेकिन तभी किसी की बाहर आंगन से गला खखारने की आवाज़ आयी। बेग साहब आ चुके थे। उनकी मौजूदगी को भांप कर ही उन दोनों औरतों ने अपने सर का दुपट्टा ठीक किया और दरवाजे की तरफ़ देखने लगीं।

अंदर आने पर उन्होंने अपनी बेगम की ओर एक नज़र देखा तो वो अंदर चली गयीं। थोड़ी देर बाद वो वापिस आयीं तो उनके हाथ में पानी का लोटा था। जिससे बेग साहब ने अपने हाथों और पैरों को धुला। उन्होंने अपनी टोपी को उतारा और उनके सामने की कुर्सी पर बैठ गए।

"मैं कायदों और उसूलों का पक्का इन्सान रहा हूँ। मगर ये कायदे ये उसूल जवान बेटियों के घरवालों के काम नहीं आते। नसीमा के साथ जो हुआ, वो आपके सामने ही है। मैं नहीं चाहता कि वो सब सुरैया के साथ भी हो। वैसे भी उसका इतना पढ़ लिख जाना ही उसके ससुराल को अखर रहा है। लड़का नमाज़ी है, तालीम का पक्का है, अच्छे ओहदे पर है। इससे ज्यादा हमें क्या चाहिए..."

"नसीमा के साथ जो हुआ, वो ज्यादती थी। उसके गुनाहगारों को सज़ा मिलनी चाहिए थी। इंसानों ने उसके साथ इंसाफ़ नहीं किया, लेकिन अल्लाह उसके साथ नाइंसाफी नहीं करेगा। यकीन मानों, नसीमा की रूह ये कभी गंवारा नहीं करेगी कि उसकी बहन उसके नाम के पीछे उसी ज्यादती का शिकार हो जाये।" बाजी ने उन्हें बहुतेरी बातें कहीं पर इन बातों पे दोनों ही कुछ ना बोले। अपनी गुजरी हुई औलाद के साथ हुई ज्यादती उन लोगों के लिए एक ऐसा सदमा थी कि उस पर कुछ बोल सकना उनके बस में ना था। इस ख़ामोशी के आगे बाजी की बातों को अहमियत ही क्या थी? वो तो अपनी औलाद के भले के लिए उसकी मर्ज़ी का गला घोंटनें को तैयार थे। वो अंजुमन की तरह जलती आग नहीं बन सकती थीं जिससे उनसे कोई सख़्त सवाल करके उनके पुराने जख़्म कुरेंद पातीं। वो नादिरा की तरह बर्दाश्त करने की तासीर भी नहीं रखती थीं। लेकिन कोशिश करना वो जानती थीं मग़र उन्हें कोशिशों में ज्यादा ऐतबार ना था। अपनी जवानी में तो उन्होंने सिर्फ बग़ावत करना ही जाना था। किसी सवाल जवाब के बग़ैर वो उन जगहों और लोगों से दूर भाग जाया करती थीं जो उनपे किसी भी क़िस्म की बंदिशें लगाते थे।हाँ ये बात अलग़ थी कि ऐसा करके उन्हें कभी सुकूँ न मिला था।

"लेकिन सुरैया की तालीम तो मुकम्मल हो जाने दें। महीने दो महीने की ही तो बात है। आखिरी साल ही तो है।" उन्होंने आखिरी कोशिश की थी पर उन्हें भी मालूम था की ये कोशिश कारगर ना होगी। और इसे जताने में बेग साहब ने देर ना की।

"सभी असग़र मियां की तरह बड़ा दिल और हौसला नहीं रखते। उनमें बड़ा सब्र है। आपकी अंजुमन के लिए सालों से बैठे हैं वो। मग़र बाकी दुनिया ऐसे बड़े दिलवालों से नहीं भरी है। अगले जुम्मे को सगाई है और उसके अगले जुम्मे निक़ाह...हम तो खुश हैं कि हमने जूतियां नहीं रगड़ी और ना ही मिन्नतें की कहीं, फिर भी हमें अच्छा रिश्ता मिल गया। वरना जहेज़ की रक़म जोड़ते जोड़ते जान ही निकल जाती, और रिश्ता कभी ना जुड़ता।"

मुमताज बाजी ने जब ये सुना तो समझ गयीं कि ये लोग उनकी बात नहीं सुनेगें।  अभी तक तो वो सुरैया की पढ़ाई, उसकी रज़ामंदी को लेकर फिक्रमंद थीं। मग़र अब तो सुरैया से ज्यादा उन्हें अपनी अंजुमन की फ़िक्र होने लगी थी। 'ये लोग असग़र मियां के खानदान को कैसे जानते हैं?' वो ये सोच कर हैरान थीं। जबकि उन्होंने कभी किसी को अंजुमन के रिश्ते की बात नहीं बतायी थी। वो सोचती थीं कि वक़्त के वक़्त के साथ वो टाल मटोल करके इस रिश्ते को ख़त्म कर देंगी और अंजुमन अपने मन मुताबिक़ अपने फैसले कर सकेगी। मग़र ये लोग ना सिर्फ़ उन लोगों को जानते थे बल्कि निक़ाह की ये जल्दी एक दूसरा ही डर पैदा करने लगी थी उनके मन में। वो समझ गयी कि ये रिश्ता किसने भिजवाया होगा... और ये सोच कर वो एक गहरी चिन्ता में डूब गयी थीं।

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कॉलेज का सारा दिन बड़ी ही ख़ामोशी से बीता। उन दोनों के ना होने से अंजुमन को कोई भी क्लास, किसी की भी बात अच्छी नहीं लग रही थी। उसकी क्लास में लड़कियां थीं ही कितनी? यही कुल मिलाकर पाँच! लड़कियों को बहुत कम ही लोग कॉलेज तक की पढ़ाई करने देते। वो भी उनकी ससुराल की रज़ामंदी से। इन सबका रिश्ता कहीं ना कहीं तय हो चुका था। बस बानी ही थी जिसकी मँगनी नहीं हुई थी। पर उसका कहीं रिश्ता हो भी कहाँ सकता था। वो तो एक विधवा थी। एक बाल विधवा... जिसे ख़ुद ही इस बारे में कुछ याद ना था। हाँ बस वो इतना जानती थी कि वो विधवा है। किसी मरे हुए के नाम पे बैठी हुई है। और आगे भी उसे उसी नाम के आगे बैठे रहना पड़ेगा। समाज के इन खोखले रिवाज़ों से उसका दिमाग खौलता था। वो तो बानी थी, जिसकी खुशमिज़ाजी उसे हैरत में डाल देती थी। यही क्या कम था कि वो इतने ऊँचें दर्जे तक पढ़ पा रही थी। उसके ससुर चाहते थे कि वो पढ़े। जाने कहाँ तक... बस पढ़े.... जाने किसलिए.... मग़र कॉलेज जाये....

"पर हमारी मर्ज़ी क्या है, इससे किसी को क्या मतलब है?", अंजुमन सारा दिन बस यही सोचती रही। उसे इस बात से गुरप्रीत का ख्याल आया। वो सोच रही थी कि आखिर उसने भी तो उसकी मर्ज़ी जानने की कोशिश ना की... यूँ किसी का पीछा करते रहना क्या सही था? चाहे वो मोहब्बत के ही नाम पर हो? उसने नहीं सोचा होगा कि उसकी हरकतें किसी को नुकसान भी पहुँचा सकती होंगी। किसी को डर भी लगता होगा। बदनामी भी होगी। उसने भी तो यही मान लिया था ना कि वो उसे चाहता है तो अब उसका भी फर्ज़ है कि वो भी उसे चाहे..?

गुरप्रीत का नाम जेहन में आते ही अंजुमन ख्यालों में खो गयी थी। वो उन कुछ पलों को याद करती जिनमें वो खुद को उसकी ओर खिंचा हुआ सा पाती। जिनमें वो खुद को कमजोर हो जाने देती। आख़िर उसका दिल क्यों नहीं खिंचता उस शख़्स की ओर जो उसकी चाह रखता था... हर इंसान की तरह उसमें भी ये ख्वाहिश थी, ये कमज़ोरी थी। किसी की चाहतों का हिस्सा बनना, किसी की मोहब्बत हो जाना....पर इतना तो वो जानती थी कि उसके दिल में जो कुछ भी था वो मोहब्बत तो नहीं था। हाँ वो क्यों था और आखिर क्या था, वो भी ठीक तरीके से नहीं जानती थी। लेकिन वो जो कुछ भी था, उसे ख़त्म करके वो खुद को बेहद हल्का महसूस कर रही थी। दिल में इस बात को लेकर सुकूँ भी था। सुरैया के साथ जो कुछ हो रहा था, उसने उसके अंदर की उस कमज़ोरी को उखाड़ फेंका था। चाहे वो मोहब्बत में पड़ जाने की ही कमज़ोरी क्यों ना हो..? चाहे वो उसका दिल ही क्यों ना हो..?

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