बेचैनियाँ और ख़ामोशियाँ
"देख तुझे आज अकेले ही कॉलेज जाना होगा...." बानी ने सेहन में आते ही कहा। अंजुमन कबसे ही तैयार खड़ी उनका इंतजार कर रही थी। उसने बानी को सादी सलवार कमीज में सुरैया के बिना आते हुए देखा तो हैरानी से सवाल किया,"क्यों? तुम कॉलेज नहीं आ रही हो क्या? और सूरी कहाँ रह गयी?" बानी का चेहरा उदास था। जब उसने उसका ये सवाल सुना तो उसने धीरे से कहा,"वो क्या है कि सूरी की बात चल गयी है... उसके यहाँ उसके ससुराल वाले उसे देखने आये हैं। सब कुछ पक्का पहले से ही था। अब शायद कुछ रस्में निभाने आये हैं। उसका होने वाला शौहर नहीं चाहता कि वो अब कॉलेज जाये। पराये मर्दों के बीच उठे बैठे। सुना है कि उसने सूरी को कहीं देखा था और उसे पसंद कर बैठा। बड़ी ज़िद की अपने घरवालों से। तब जाकर ये रिश्ता हुआ है।"
बानी की ये बात सुन अंजुमन परेशान हो गयी। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अगर सब कुछ पहले से ही तय था तो सुरैया ने उन सबसे ये सब छुपा क्यों रखा था? उसके रिश्ते की कोई बात उन लोगों को मालूम तक ना थी। उसने अपनी मायूसी को दबा की कोशिश की पर कामयाब ना हुई," सूरी ने हम सब से इतनी बड़ी बात छुपाई? क्या वो अब पढ़ना नहीं चाहती? एग्जाम देने तो वो आएगी ना?"
बानी ने उसकी ओर निराश हो कर देखा। वो समझ सकती थी उन सवालों के पीछे की कश्मकश को। कुछ देर पहले उसे भी ऐसा ही महसूस हुआ था जब सुरैया के बारे में उसे मालूम पड़ा था। पर वो अब सोच रही थी कि काश वैसा ही होता जैसा वो सोच रही थी, जैसा अंजुमन अभी सोच रही है।
"सूरी क्या बताती हमें कुछ भी? उसे खुद भी कहाँ कुछ मालूम था। उसके अब्बा अम्मी ने उसे कोई ख़बर नहीं दी। आज उसके ससुराल से कोई आ रहा है ये तक उसे पता नहीं था। वो तो मेरे सामने ही तैयार खड़ी थी। उसकी अम्मी ने उसे सब कुछ मेरे सामने ही बताया। वो मेरे सामने ही रोती रही।" बानी की आँखों में आँसू थे। वो रोते हुए बताती रही कि कैसे सूरी के साथ जबरदस्ती की जा रही है। अंजुमन ये सब सुन... वो नहीं जानती थी कि क्या महसूस कर रही थी? वो बानी की तरह रोना नहीं जानती थी। उसके मन में ना मायूसी थी और ना ही किसी क़िस्म की बेचारगी थी। था तो केवल गुस्सा... गुस्सा.., जो अपनी हदें नहीं जानता था। वो सोच भी नहीं सकती थी कि सुरैया के घरवाले उसके साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं... किसी के भी घरवाले ऐसा कैसे और क्यों करते हैं? अपनी ही औलाद के साथ जबरदस्ती करना... उसकी मर्ज़ी के खिलाफ जाना...।
पर सुरैया के घरवाले तो बेहद क़ायदा परस्त और ईमान वाले थे। वो क़ुरान की बातों को समाज के नियमों पे तरजीह देते थे। इसलिए ये बात उसे और भी ज्यादा गुस्से में डाल रही थी।
"ऐसा कैसे कर सकते हैं वो लोग? वो तो हमेशा तालीम को ख़ुदा का रास्ता बताते आये हैं। तो अब उसकी पढ़ाई कैसे छुड़ा दी?" अंजुमन ने नफ़रत में भरकर कहा। उसकी इस बात का कोई मुक्कमल जवाब बानी के पास नहीं था। इस बात का जवाब किसी के पास नहीं था।
"तेरी बात सही है अंजू, पर ये समाज ही ऐसा है... जहाँ लड़की के बाप को मुक्कमल रिश्ता नजर आता है, वो बाकी सारी बातें भूल जाता है। तुम लोगों ने तो फिर भी कॉलेज की दहलीज़ देख ली। मेरी बात तो अलग है.." बानी की बात को नजरअंदाज कर अंजुमन सुरैया के बारे में सोच रही थी। ना जाने वो इस समय क्या कर रही होगी? रो रो कर उसकी जान जा रही होगी और उधर वो लोग कहकहे लगा रहे होंगे। ये सब जब उसके दिमाग में आया तो वो खुद को जैसे तैयार करती हुई बोली-"मैं अभी उसके घर जाऊँगी। उन लोगों से बात करुँगी। देखती हूँ वो लोग क्या जवाब देते हैं? वो कैसे मुझे उससे कॉलेज ले जाने से रोकते हैं?" इतना कहकर उसने अपना बैग वहीं पटका और दरवाजे की ओर जाने लगी। बानी ने जब उसकी बात सुनी तो वो डर गयी। अंजुमन का ग़ुस्सा बेहद डराने वाली बात थी। वो अपने गुस्से में ना जाने क्या कुछ नहीं कह सकती थी? उसके घर में इस समय हलचल होगी। ऐसे में अंजुमन वहाँ जाये, ये ठीक नहीं था। सूरी के लिए तो बिलकुल भी नहीं। उसने घबराकर उसे रोकने के लिए आवाज़ दी। जब वो उसकी आवाज़ पे नहीं रुकी तो उसने वो बात कह डाली जिसे कहते हुए वो खुद को शर्मिंदा सा महसूस कर रही थी।
"सूरी नहीं चाहती थी कि तुझे ये बात पता चले। मेरा मतलब है कि वो नहीं चाहती थी कि तू ये बात जाने कि ये सब उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हो रहा है।"
बानी की इस बात पे वो रुक गयी। उसे अपने कानों पे यकीन नहीं हुआ। सुरैया भला ऐसा क्यों चाहेगी कि उसे ये सब मालूम ना पड़े?
बानी ने उसकी तरफ़ हिचकते हुए देखा और फिर दूसरी तरह देखते हुए कहने लगी-"उसका सोचना था कि तुम इन सब बातों की गहराई को समझ नहीं सकोगी। और गुस्से के सिवा तुम्हें कुछ भी नज़र नहीं आएगा।"
"तो इसमें गुस्से के अलावा भी कोई बात है?" अंजुमन को समझ नहीं आ रहा था कि बानी को जाने क्या हो गया है? सुरैया इस वक़्त अपनी अक्ल खो बैठी है, ये समझ आता है पर बानी को जाने क्या सवार हो गया है?
बानी ने जैसे उसके मन की एक एक बात को पढ़ लिया था। उसने साँसें खींचते हुए सिर्फ इतना कहा-"तुझे नसीमा आपा के बारे में कुछ भी पता नहीं है ना इसीलिए... सूरी का कहना सही था। तुझे समझ नहीं आएगा।"
उसकी बातें वो ठीक तरीके से समझ नहीं पायी थी। नसीमा आपा कौन थी? उनका इन सबसे क्या लेना देना था? उसके मन में बहुत से सवाल घुमड़ रहे थे लेकिन बानी से इस वक़्त वो कुछ और पूछना नहीं चाहती थी। उसकी बातें बहुत कड़वी सी उसके दिल पे लगी थीं।
बानी ने जाते जाते मुड़ कर फिरसे कहा-"कम से कम एक को तो कॉलेज जाना ही चाहिए।"
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"क्या मैं उनकी दोस्त नहीं जो वो मुझसे बातें छुपाती हैं? ऐसा क्या है जो वो मुझे बता नहीं रहे हैं...ठीक है, अगर उन्हें लगता है कि उन्हें मेरी कोई जरूरत नहीं है तो मैं भी परवाह नहीं करुँगी..." गुस्से में भरी अंजुमन की आँखें पल भर में ही गीली हो गयीं। जबसे से वो दिल्ली आई थी, सुरैया और बानी ही उसकी हर कदम की साथी थीं। वो उनके बिना कॉलेज जाना तो दूर, अकेले कहीं भी नहीं जाती थी। पिछले 20 सालों में उसने उन दोनों के सिवा किसी को भी अपना दोस्त नहीं बना सकी थी। और अब उसके ये दोस्त ही अपने मुश्किल वक़्त में उससे दूरी बना रहे थे... ठीक है.. वो भी परवाह नहीं करेगी कि वो उसके बग़ैर क्या करते हैं...।
अंजुमन गुस्से और जज़्बातों में भरकर जो कुछ भी सोचे जा रही थी उसमें कोई भी सच्चाई नहीं थी। और ये बात अंजुमन का दिल भी जानता था। यही वजह थी कि मन ही मन उन दोनों को कोस लेने के बाद वो अब सुरैया के लिए बेहद फ़िक्रमंद हो गयी थी। वो समझ रही थी कि सुरैया ने बानी को क्यों उसे कुछ भी बताने से मना किया होगा... वो उसके गुस्से से डरती थी। उसके गुस्से से तो सभी डरते थे। पर वो ऐसी भी बेवकूफ़ नहीं थी कि कुछ् भी समझती नहीं थी। बानी तो हमेशा से समझदार रही है। उसकी वज़ह भी है। उस वज़ह के बारे में सोच कर उसका मन बेहद उदास हो गया। उसने सिर्फ़ इतना ही खुद से कहा-"क्या लड़की होना गुनाह है क्या?" वो चाहती थी कि वो वापिस जाये और झगड़ा करे। सुरैया के घरवालों से, बानी के घरवालों से, पूरी दुनिया से... सबने ही तो हम लड़कियों की ज़िन्दगी बर्बाद कर रखी है। वो गुस्से और दुःख में कदम बढ़ाते हुए जान ही ना सकी की, वो नुक्कड़ तक आ पहुचीं है।
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मुमताज़ बाजी तकिये का पुराना गिलाफ़ लिए कुर्सियों और मेजों की झाड़ पोंछ कर रही थीं। कभी अपने कमरे के दरवाजे के साथ लगे गुलदस्ते पर झाड़न मरती तो कभी फिरसे पहले से साफ़ की हुई दराज़ पोंछने लगतीं। शायद अपने मन की उलझनों को कुर्सी मेज की धूल समझ कर पोंछ रही थीं। जितनी वो सफ़ाई करतीं, जितनी तेज से झाड़न मारतीं, दिल की बेचैनी और भी बढ़ जाती। सुबह सुबह उन्होंने बानी और अंजुमन की बातें सुन ली थीं। अंजुमन के जाने के बाद उन्होंने बानी को बुलाकर उससे सुरैया के बारे में बात भी की थी। मगर वो नहीं चाहती थीं कि बानी नसीमा आपा कि कोई बात भी उससे कहे। बानी ने भी उनकी बातों पे हामी भर दी थी और उसने भी उनसे कोई सवाल नहीं पूछा था। शायद वो उनसे भी ज़्यादा अंजुमन के लिए डरती थी। वो खुद नहीं चाहती थी कि वो ये सब जाने और खुद को उन बातों के लिए हलकान करे जिस पर किसी का बस नहीं है। लेकिन यही बात तो उन्हें अंदर से खाये जा रही थी। उन्हें कभी भी कोई बात छुपाना अच्छा नहीं लगता था। ख़ासकर अंजुमन से। अंजुमन की आँखें देख कर तो वो खुद को अंजुमन की शक़्ल में जीते हुए महसूस करती थीं। लेकिन क्या बात सिर्फ़ इतनी सी ही थी? क्या वो खुद अपने आप को उससे छिपा नहीं रही थीं?
अग़र वो शैतान की बला इस वक़्त यहाँ होती तो उनसे झाड़न छीन कर पूछती-'आख़िर माज़रा क्या है नानी?' और उसकी सवाल भरी आँखें उनसे देखी नहीं जाती। वो अपना सब कुछ जाहिर कर देतीं। पर उन्हें तो अपनी बात छुपानी ही थी। हर हाल में छिपानी थी। जो बात नादिरा नहीं समझ सकी थी कभी वो क्या अंजुमन समझ पायेगी? उन्हें अंजुमन में अपनी परछाई नज़र आती थी, उसमें भी वही अल्हड़पन देखती थीं जो कभी उनमें भी हुआ करती थी... नादिरा तो उनसे बेहद अलग थी। कई बार वो सोचतीं,'क्या वो सच में उनकी ही औलाद है?' ना वो अपने बाप पे गयी थी और ना ही उन पर। लेकिन क्या अंजुमन बिलकुल उनकी ही तरह है? वो लाख़ परछाइयाँ देख लें उसमें अपनी लेकिन वो मुमताज़ बानों नहीं है। वो तो अंजुमन सईद है। नादिरा और जहाँगीर सईद की औलाद... जो उनसे हर ताल्लुक़ तोड़ कर चले गए थे। तो अंजुमन उनसे अलग क्या करेगी? मुमताज़ बाजी जितना खुद को समझतीं, उतना ही खुद को अँधेरे में पाती। पर उनके मन का एक कोना ऐसा भी था जिसमें उन्हें खुद से ज्यादा अंजुमन पे यक़ीन था....।
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हर रोज की तरह गुरप्रीत नुक्कड़ के पास की दुकान पर बैठा हुआ था। दो कप चाय ख़त्म हो चुकी थी और अख़बार का हर एक पन्ना भी वो पढ़ चुका था। मगर वो अब तक दिखाई नहीं दी थी। वो कभी वहां से गुजरने वाले किसी आदमी से वक़्त का पता पूछता तो कभी सड़क के पास आकर उसके दोनों तरफ़ नजरें दौड़ाने लगता। 'इतनी देर तो कभी नहीं होती', सोच कर फिर से अपनी जगह जा कर बैठ जाता। चाय वाले मनोहर काका उसकी बेचैन निगाहों और हरकतों को खूब समझ रहे थे। लेकिन कुछ बोलना उन्होंने जरुरी नहीं समझा। उन्हें हालांकि उसका यहाँ रोज बैठे रहना जंचता नहीं था। उन्होंने उसे समझाया भी था कि यूँ उसका किसी भले घर की लड़की के लिए निगाह रखना शोभा नहीं देता था। पर उनकी बातें क्या गुरप्रीत समझ पाता? वो तो अंजुमन की मोहब्बत में पागल था। अंजुमन.... यही तो नाम था उसका। हर महीने के आखिरी में दिल्ली यूनिवर्सिटी में होने वाली बहसों में, चर्चाओं में वो उसकी बातों को सुनने जाया करता था। वहीं तो उसने उसका नाम जाना था। उसकी बातों में उसके ख्यालों को पाने की कोशिश करता था। उसके क्रांतिकारी सी लगने वाली बातों पर जहाँ काफ़ी लोग हूटिंग किया करते वहीं वो उन बातों का कायल हो जाता। उसकी बातें उसके दिल को लगतीं। और पिछले कुछ महीनों से वो यहाँ इस उम्मीद में बैठा रहता कि कभी उसमें इतनी हिम्मत आएगी कि वो उससे आमने सामने बात कर सकेगा। लेकिन वो रोज वहां से गुजरती लेकिन उसे कभी उससे बातें कर पाने की हिम्मत ना होती। वो कभी अकेली भी तो ना होती। ना ही कॉलेज में और ना ही वहां रास्ते पे। अंजुमन की सहेलियां वैसे भी उसे बदमाश ही समझती थीं। तो उसकी उन सहेलियों के सामने वो क्या बात कर पाता? बस वो अपने पास रखी किताबों को पढ़ता और उसे देख कर ही मन को शांत कर लेता। अपनी बुज़दिली पर उसे कभी कभी गुस्सा भी आता। पर वो क्या करता, अपने दिल से मज़बूर था। आज जब उसे इतनी देर हो रही थी, तो उसे मन ही मन डर भी लग रहा था। 'कहीं उसकी ही वज़ह से उसने इस रास्ते से जाना ही तो नहीं छोड़ दिया?' जब उसने ऐसा सोचा तो उसका मन डर सा गया। उस डर की उलझन से बचने के लिए उसने अख़बार को फिरसे खोल लिया था। अपने मन के सवालों से दूर, मनोहर काका की नज़रों से बचता हुआ उसने अपना चेहरा अख़बार के पन्नों में छिपा लिया था। लेकिन तभी एक आहट ने उसे अख़बार से झांक कर देखने पर मज़बूर कर दिया था। और वो आहट उन्हीं कदमों की आहट थी जिसके इंतजार में उसकी धड़कनें उसके कानों में गूंज रही थीं।
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