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पहली मुलाक़ात


अंजुमन आँखों में आँसू लिए चुपचाप नुक्कड़ की दुकान से गुजरी। आज उसके चेहरे पर एक सादी ख़ामोशी नहीं बल्कि एक अजीब सा गुस्सा भरा हुआ था। वो जानती थी कि इस रास्ते से गुजरने का क्या मतलब था। शायद आज वो मन में बहुत कुछ तय करके आयी थी पर नहीं जानती थी कि उसकी शुरुआत वो कहाँ से करे?

गुरप्रीत ने तो दूर से ही उसे अकेले आते हुए देख लिया था। वो समझ गया था कि आज वो अकेले ही कॉलेज जा रही थी। उसका अकेला होना उसके लिए भी हैरान करने वाली बात थी। पर जब वो दुकान के पास से गुज़री तो उसका उदास चेहरा उसकी नज़रों से छुप ना सका। बुर्के की चादर इतनी झीनी थी कि उसकी आँखों के आँसू भी साफ़ साफ़ दिख रहे थे।
वो उसे इस तरह उदास देख खुद को रोक नहीं सका, और बिना किसी बात की परवाह किये उसके पीछे पीछे चल पड़ा।

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मुमताज़ बाजी बानी के घर के सामने अपनी छड़ी लिए खड़ी थीं। वो काफ़ी देर उससे दरवाज़े को खड़काये जा रही थीं मग़र कोई खोलता ही ना था। ख़ैर वो जानती थी कि बानी के घरवाले उनकी वज़ह से ही दरवाजा खोल नहीं रहे थे पर उन्होंने खुद से यही कहना जरुरी समझा कि 'शायद कोई घर पे नहीं है',और वहाँ से लौट गयीं। वो और क्या करतीं, सिवाय वहाँ अकेले जाने के। उन्हें लगा था कि उन्हें एक बार तो कोशिश करनी ही चाहिए। बानी एक हिन्दू परिवार की लड़की थी। उन लोगों को उसकी अंजुमन से दोस्ती अखरती थी। अंजुमन वहां कभी नहीं आती थी। उसे बानी के घरवालों से सख़्त चिढ़न होती थी। इसलिए बानी ही उसके घर आया जाया करती थी।वो तो बानी पे उनका कोई ज़ोर नहीं था इसलिए वो उसे अंजुमन से मिलने से रोक नहीं सकते थे। आख़िर सारा मामला पैसों का जो था। बानी की वज़ह से जो पैसा उनके घर आता था उसकी वज़ह से बानी को कोई रोक टोक ना थी। लेकिन बानी को सख़्त हिदायत दी हुई थी कि उसके पीछे कोई मुसलमान उनके घर ना आये। उन लोगों को जाने क्यों मुसलमानों से चिढ़ थी, ख़ासकर मुमताज़ बाजी से। लेकिन वो खुलकर किसी से कुछ नहीं कहते थे। और तो और सुरैया के घरवालों से तो बेहद अदब से बात करते। सुरैया के अब्बा मोहल्ले की मस्ज़िद के मौलवी थे। साथ ही वो मोहल्ले के बच्चों को मुफ़्त में हिंदी और उर्दू दोनों ही पढ़ाया करते थे। उनके घर के बच्चे उनसे ही पढ़ने जाते थे। इसी कारण वो उनसे किसी भी तरीके का रार नहीं ले सकते थे। बानी तो उनकी हो कर भी उनसे परायी थी। इसीलिए उन्हें वहाँ सुरैया का आना तो नहीं बुरा लगता था मग़र अंजुमन का आना अखरता था। अंजुमन ने तो इसी कारण आना जाना छोड़ दिया था। बानी ये सब जान कर सिवाय उदास होने के कुछ कर भी नहीं सकती थी। उसका जीवन उदासी के सिवा और था भी क्या? वो जंगले से बाजी को जाते हुए चुपचाप देख रही थी। उसने खुद भी दरवाजा इसीलिए नहीं खोला था क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि उसके घरवाले उनकी बेइज्जती करें। वो समझ रही थी कि मुमताज बाजी ने उसके यहाँ आने की ज़हमत क्यों की होगी..। शायद उन्हें भी बाकि लोगों की तरह लगता होगा कि मेरे पिता की सुरैया के अब्बा से अच्छी निभती है। इसलिए वो उन्हें समझाने की कोशिश करेंगें। और तो और वो उसे कॉलेज में पढ़ने देते हैं तो उन्हें सुरैया के कॉलेज ना जा पाने की फ़िकर होगी। बाजी क्या जाने यहाँ क्या होता है... वो कॉलेज जा पाती है, तभी इस घर में पैसा आ पाता है। उसके विधवा हो जाने के बावजूद उसके ससुर उसकी पढ़ाई का खर्चा उठाते हैं। उसके घर पैसा पहुँचाते हैं, ताकि उसके घरवाले उसके कॉलेज जाने पे ऐतराज़ ना करें। पूरा मोहल्ला तो ये सोचता था की उसके घरवाले महान हैं। बहुत बड़े दिल के हैं। हाँ कुछ लोग उन्हें नीच कहते थे। कहते थे कि विधवा लड़की को पराये लड़कों के साथ भेज कर उसे रंडीबाजी के गुर सीखा रहे हैं। हालांकि केवल मुमताज़ बाजी,अंजुमन और सुरैया को ही मालूम था कि सच आख़िर क्या था लेकिन शायद उन लोगों को भी पूरा सच नहीं मालूम था। आख़िर इसीलिए तो बाजी उसके घर तक चली आयीं थीं। उन लोगों के यहाँ जिन्हें शायद अपनी ज़ात के सिवा किसी और की कोई परवाह नहीं थी।

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"तुम मेरा पीछा क्यों कर रहे हो? मैं जानती हूँ कि तुम कौन हो..." अंजुमन थोड़े दूर जाने के बाद अचानक ही रुक कर बोली। उसे ये एहसास हो गया था कि गुरप्रीत उसके पीछे पीछे ही आ रहा था। गुरप्रीत ने जब उसकी आवाज़ सुनी तो वो थोड़ा घबरा सा गया। उसने पहले तो कभी उससे बात तो की ना थी इसलिए वो समझ नहीं पाया कि वो उससे क्या कहे। उसे ये भी लगा कि कहीं अंजुमन उससे डर तो नहीं गयी है..। लेकिन अंजुमन की आवाज़ इतनी तल्ख़ थी कि उसकी रही सही हिम्मत भी जाती रही। वो उससे वो सीधा सादा सवाल पूछ बैठा जो उसके मन में था,"तुम आज देर से आयी और अकेले भी हो। तुम्हें उदास देख कर मैं खुद को पीछे आने से रोक नहीं पाया। तुम्हारी दोस्ते कहाँ रह गयीं?"

"तुम्हें इससे क्या मतलब है कि मैं उदास हूँ या नहीं हूँ? तुम्हें आखिर मेरी क्या परवाह है?" अंजुमन ने बेहद तल्खी से कहा। उसकी इस बात से जैसे गुरप्रीत के मन को चोट सी लगी। उसने आगे बढ़ कर कहा-"मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है? तुम्हें क्या पता, तुम अगर आज नहीं आती तो..."

उसकी इस बात पे अंजुमन ने उसकी ओर मुड़ कर कहा-"तो क्या होता? क्या कोई तूफ़ान आ जाता? क्या कोई मर जाता? ऐसा कुछ भी नहीं होता। बस एक दिन बीत जाता। और तुम अगले दिन फिर वहीं खड़े हो जाते। तुम्हें क्या परवाह होती कि तुम्हारी इन हरकतों से किसी का क्या जाता है..."

उसकी बातें गुरप्रीत के दिल को लगी थीं।उसने कभी सोचा ना था कि जब उसकी उससे पहली मुलाक़ात होगी तो वो इस तरह की होगी। अकेले में वो कितनी बार सोचता था कि वो जब उससे मिलेगा तो क्या क्या कहेगा, वो उससे क्या क्या कहेगी... इन बातों की कल्पना वो करता और मुस्कुराता। लेकिन उसने कभी एक पल को भी नहीं सोचा था कि जिन आँखों में वो अपने लिये एहसासों को देखना चाहता था वो आँखें एक इलज़ाम से भरी हुई हैं। वो कुछ बोल ही नहीं सका। लेकिन अंजुमन कहती रही।

"तुम पूछ रहे थे ना कि मेरी सहेलियां कहाँ हैं? तो सुनो.. वो क्यों नहीं आयीं? बात ये है कि मेरी दोस्त का निक़ाह तय हो गया है। उसकी मर्ज़ी के बिना। तो अब वो कभी कॉलेज जा नहीं सकेगी। रोयेगी, चिल्लायेगी, पर उससे कुछ बदल नहीं सकेगा। वज़ह: उसके ससुराल वालों को उसका कॉलेज जाना पसंद नहीं। ख़ासकर लड़के को। मर्दों का क्या है? उनकी पसंद नापसंद हमारी ज़िन्दगियों से बढ़ कर हो जाती हैं।.."

थोड़ी देर के लिए वो चुप हो गयी। उसके चेहरे के आते जाते हुए रंगों को देखती रही।वो अब भी ख़ामोश खड़ा रहा। उसे ऐसे देख उसने ही चुप्पी तोड़ी।

"तुम भी तो वैसे ही हो। अपनी पसंद नापसंद के आगे कुछ ना देखने वाले। तुमने कभी मुझसे मेरी मर्ज़ी पूछी कि मैं क्या चाहती हूँ? तुमने तो बस मेरा पीछा करना ही जरुरी समझा। सड़कों पे आना जाना भी मुश्किल कर दिया। और हमेशा यही तो होता आया है हमारे साथ। जबरदस्ती... हर बात में जबरदस्ती। कभी परंपराओं की, कभी रिश्तों की, रिवाज़ों, कभी तुम लोगों की वासनाओं की.... यहाँ तक कि मोहब्बत की भी। हर चीज़ को जबरदस्ती करके हासिल कर लेना ही तुम लोगों की फ़ितरत है।"

गुरप्रीत की आँखों में अब आंसू भर आये थे। उसे एहसास था कि उसका पीछा करते रहना उसकी गलती थी। नहीं... सिर्फ़ गलती भी नहीं थी। ये एक क़िस्म की जबरदस्ती थी। और जबरदस्ती करना तो गुनाह था।

"मुझे तुमसे सीधे सामने आकर बात कर पाने की हिम्मत ही ना हुई। तुम्हें यूँ ही देख कर ही खुद को तसल्ली दे दिया करता था। हाँ... मैंने गलत किया। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर ये तो सच है कि मुझे तुमसे मोहब्बत हो गयी है। इस एहसास को बिना जाहिर किये अब और नहीं रह सकता हूँ।" गुरप्रीत के अंदर ना जाने कहाँ से हिम्मत जुटा कर उससे ये सब कह पाया था। ये उसकी पहली ही मुलाक़ात थी और इसी एक मुलाकात में कई मुलाक़ातों की बात हो गयी थी।

"मोहब्बत है। तो सब्र तो करो। मुझसे भी तो पूछो कि मैं क्या चाहती हूँ? यूँ पीछा ना करो। सड़कों से गुजरना, पढ़ना लिखना मैं छोड़ नहीं सकती मोहब्बत के पीछे। मँगनी भी हो चुकी है मेरी। कुछ बेचैनियों के सिवा मेरे दिल में कुछ भी नहीं है तुम्हारे लिये। हाँ जो कुछ भी है, मोहब्बत तो हरगिज़ नहीं है। जो कुछ है... मैं उसे संभाल कर रखना चाहती हूँ। उसे मेरा पीछा करके मत ख़त्म करो।"

"क्या मैं इंतजार भी नहीं कर सकता?" गुरप्रीत ने एक आस भरी निगाहों से देख कर उससे सवाल किया। उसकी मँगनी की बात जानकर वो बुझ सा गया था। मग़र फिर भी उसे अपनी क़िस्मत पे यकीन था।

"कर सकते हो। मैं तुम्हें इसके लिए मना भी नहीं कर सकती। पर अगर इंतज़ार करोगे तो पछताओगे। तकलीफ़ के सिवा कुछ और नहीं मिलेगा तुम्हें। हमारे ख़ुदा भी अलग अलग हैं। किस सूरत में तुम मेरा इंतजार करके कुछ पाओगे?"

अंजुमन ने उसे समझाते हुए कहा। लेकिन शायद वो इस बात से नहीं डरता था। जैसे कभी भी नहीं डरा था। उसकी आँखों के सिवा कोई और बात थी भी नहीं जिससे वो डरता

"मैंने कभी भी रब को अलग अलग नहीं जाना। जो तुम्हारा ख़ुदा है, वही मेरा भी रब है। अग़र वो अलग है, तो मैं अपना रब छोड़ दूँगा। तुम्हारे ख़ुदा का बन जाऊँगा।" उसने बिना झिझके ये कहते हुए उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया। लेकिन उसकी छुअन अंजुमन के दिल को कमज़ोर नहीं बना सकी। उसके जेहन में सुरैया की जो तस्वीर बनी हुई थी, बानी की जो उदास आँखें थीं, वो उसके मन को सख़्त बना चुकी थीं।

"लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती। शायद मोहब्बत कर भी लूँ तुमसे, पर अपने सपने और अपनी पहचान छोड़ कर तुम्हारे पास नहीं आ सकती। मेरी जिंदगी के अपने मक़सद हैं। जिन्हें मैंने अभी कुछ पलों में ही पहचाना है। इसे मैं मोहब्बतों के पीछे गँवा नहीं सकती।" अंजुमन ने उसकी आँखों में आँखें डाल कर कहा। उसे हैरानी थी कि गुरप्रीत अभी भी उसके लिए आस लगाये था।

"क्या मैं उस मक़सद का साथी नहीं बन सकता?"
उसने धीमी सी आवाज़ में पूछा।

अंजुमन की आँखें भर आतीं, उससे पहले ही उसने सिर हिलाते सिर्फ़ इतना ही कहा-"नहीं।" और वहाँ से चली गयी। गुरप्रीत कुछ देर वहीं खड़ा रह कर उसे जाते हुए देखता रहा। जब वो चली गयी तो उसके दिल में एक अजीब सा एहसास था। ये एहसास किसी को खो देने का एहसास नहीं था। ना ही वो किसी भी क़िस्म की उदासी थी। वो तो जैसे खुद को एक अजीब से एहसासों में घिरा हुआ महसूस कर रहा था। उसे आज जाकर एहसास हुआ कि जिसे वो अब तक मोहब्बत कहता आया था, जिस मोहब्बत के पीछे वो उसका पीछा करता आया था, वो मोहब्बत नहीं थी। उसका पागलपन था, उसकी खुदगर्ज़ी थी। मोहब्बत तो उसे आज हुई थी। अभी इसी वक़्त हुई थी। ठुकराये जाने के बाद हुई थी। उन निगाहों से हुई थी जो उन एहसासों के बग़ैर भी कमज़ोर नहीं पड़ी थी, जिसने उसको कमज़ोर बनाया था। वो अब जानता था कि अब उसे क्या करना था। और उसके पास भी अब एक मक़सद था। जो थोड़े देर पहले मकसदों की बात कह रही थी, उसे भी एक मक़सद दे कर चली गयी थी।

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