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बचपन भी अजीब होता है, कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। अभी तो सहेलियों संग घर-घर खेलते थे। भाइयों को आसमानों में ऊँची ऊँची पतंगे उड़ाते देखते थे। गलियों में, चौराहों में चिल्लाते हुआ भागा दौड़ी करते थे । पर भागते-भागते कब बचपन पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला। पर ये भी अजीब है, इससे पहले की हम गुज़रते बचपन को देख पाएं हमारे आस पास के लोग इसे भांप जाते हैं । वे जान जाते हैं के कब आपने बचपन की सीमा लाँघ कर यौवन की ड्योढ़ी पर कदम रख दिया है ।
ऐसे में जब आपका बचपन आपका साथ छोड़ जाता है तो उसकी देन मासुमीयत और बेबाकपन ही हैं जो आपके साथ रहती हैं । पर ये ही आपके जीवन की कमज़ोरी साबित होती हैं। आपकी नज़रन्दाज़ी, आपकी मासूमियत ही आपकी दुश्मन बन जाती हैं जब इनका फायदा कोई और उठता है ।
लड़कियों के जीवन में मानसिक और भावनात्मक बदलाव तो बहुत बाद में आते हैं, पर शारीरिक बदलाव बहुत जल्दी आने लगते हैं। इतनी जल्दी के उसका अहसास लड़की को हो ना हो पर आस-पास के लोगों को ज़रूर हो जाता है ।
कच्ची उम्र की कच्ची समझ का फायदा सब उठाना चाहते हैं । ऐसे बहुत से लोग हैं हमारे समाज में जो बस मौके की ताक में रहते हैं। वो बस इंतज़ार करते हैं कि कब आपको अकेला पाएं और झपट पड़ें । इससे भी ज़्यादा दुःख की बात ये है कि ये मौकापरस्त लोग कोई और नहीं पर आपके आस-पास के, आपके जानकार लोग होते हैं ।
बचपन से ही, बल्कि दो-तीन साल की उम्र से ही हम बच्चों को सिखाते हैं कि बेटा किसी अन्जान अंकल या आंटी से कुछ मत लेना, उनके साथ कहीं मत जाना। पर वो शख्स, जो आपके बच्चों का असली दुश्मन है, अगर जाना-पहचाना हो तो?
ऐसे लोग जिनके साथ आपकी बच्ची खेलती हो, बेफिक्री से घूमती हो और आप भी निःसंकोच उन्हें जाने देते हों, बिना ये सोचे कि असल दुश्मन तो वही है। वही है जो पहली बार आपकी बेटी को बुराई का अहसास कराएगा, ये अहसास करवाएगा कि उसके शारीरिक बदलाव की भनक उससे पहले ओरों को हो गयी है । वो भले ही मन से बच्ची हो पर तन से नहीं। पर ये अहसास, ये सच जिस कदर उसके सामने आया है वो सही तो नहीं।
अहसास है उसे कि वो स्पर्श सही नहीं था! वो छुअन पाक नहीं थी ! वो आदमी जिस पर उसे भरोसा था, सही नहीं था ! कल तक जिसमें उसे एक दोस्त, एक अपना दिखता था वो आज अंजान था । आज वो किसी काले सांये से कम नहीं था उसके लिए जिससे दूर जाने को वो तड़प रही थी। नहीं जानती थी कि क्यूँ ऐसा था, क्यूँ वो स्पर्श गलत था, था तो बस ये अहसास कि जो हुआ वो गलत था। बताना चाहती थी वो किसी को, कहना चाहती थी वो सब पर किसे बताए और क्या?
पर कैसे बताए, किन अल्फ़ाज़ों में ब्यान करे वो सब जो हुआ था? जब खुद ही ना समझ पाई वो तो कैसे समझाए ओरों को जो उसने महसूस किया । आखिर थी तो बच्ची ही ना, तन से नहीं पर मन से तो थी।
कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ। जवानी की दहलीज़ पर ये हादसा मेरे साथ हुआ जो मेरे मन में ये भाव और मेरे दिमाग पर ये छाप छोड़ गया कि 'ना ही कोई अपना है, ना ही करना अब किसी में यकीन है!'
आज देखती हूँ जब उस शख्स को तो घृणा का भाव मन में आता है । जी चाहता है कह दूँ सबसे कि
"निकालो इसे बाहर। ना लायक है ये किसी सम्मान के, ना मुझे इसे देखना है।"
पर कह पाऊँ ये सब इतनी मुझमें हिम्मत नहीं। कह भी दूँ तो क्या वो यकीन करेंगे मेरा? या फिर मुझ पर ही सवाल उठाएंगे ? पूछेंगे मुझसे "क्यूँ चुप रही इतने सालों तक? आखिर क्यूँ मुझे अब ये सब कहना है?"
क्या जवाब दूँ उन्हें कि थी इक बच्ची नासमझ सी। ना पता था कुछ मुझे। बस था तो ये अहसास कि गलत था जिस तरहां उसने मुझे छुआ था। ना अलफ़ाज़ थे मेरे पास, ना समझ कुछ कहने की, इसलिए बस चुप्पी साध ली ।
पर आज उम्र के इस दौर में जब मैं समझदार हूँ, जानती हूँ हर वो अलफ़ाज़ जो मेरे बीते कल को ब्यान कर सकता है तो क्यूँ मैं मौन हूँ। आखिर क्यूँ जब ये दिल इस चुप्पी को तोड़ कह देना चाहता है सब कुछ तो बस एक ही बात दिमाग में गूंजती है मानो ये मुझसे कह रहा है
'हो निडर तुम जो चाहो कहना सब कुछ आज, पर मुझे तो डर लगता है!"
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