||नानी का घर||
बरसों पुराना फिर भी घर से ज्यादा घर लगता है यह नानी का घर।
छोटी थी जब हर गर्मियों में आया करती थी,
कुछ चीखों और सेमी सांसों को घर ही छोड़ आया करती थी,
शैतान थी इसलिए नानी बहुत डांट लगाया करती थी,
पर वह मीठी सी फटकार पापा की मार से कम निशान लगाया करती थी।
रात में कभी-कभी मां की सिसक सुनाई पड़ती थी,
तो मैं मन ही में पापा पर गुस्सा करती थी,
नानी का घर इन सबके बीच साल में एक महीना सुकून देता था।
फिर साल बीतते गए और पढ़ाई बढ़ती रही,
ना जाने कब वह नानी की गलियां छूटती गई।
फिर मैं बड़ी और मां गलत के आगे खड़ी होने लगी;
धीरे-धीरे सब ठीक हो ही गया।
लेकिन मेरा दिल अपने ही घर से कहीं दूर खो गया था,
शाम को घर लोटने का ख्याल भी चुभता था,
और रात के अंधेरों में सारा दर्द छलकता था।
जब पढ़ाई पर फर्क और मेरे बर्ताव में घृणा की झलक दिखाई देने लगी,
तो एक शाम मां ने ज़बरदस्ती बिठाकर पूछ ही लिया, "क्या हुआ है? कोई तंग करता है क्या?"
उस दिन पता नहीं क्यों उजाले में वह दर्द आंखों तक नहीं रुका,
मैंने कह ही दिया, "घुटन होती है इस घर में।"
आज फिर 6 साल बाद नानी के घर जा रही हूं।
मां ने उस दिन के बाद सब ठीक कर दिया था,
वह बात अलग है कि वक्त और वो दोनों खर्च हुए उस बीच।
आज इस बरसों पुरानी हवेली को देखकर लगता है,
घर से थोड़ा सा कम घर लगता है यह नानी का घर।
~Joy
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