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विडंबना

आज मैं, मेरे अब तक के जीवन के समान बंजर एक शिला पर बैठ एक ऐसी विडंबना में पड़ा हूँ, जो मुझे अपने बीते हुए रूप पर प्रश्नचिंह लगाने पर मजबूर कर रही है। वह रूप एक पिता की, एक पति की, एक दादा की, एक नाना की है। मैंने इन सब किरदारों को निभाते हुए अपने स्वत्व को भी किनारा कर दिया, किंतु वे सब जो मेरे इन जिम्मेदारियों से जुड़े थे (या हैं), अपने स्वत्व की रक्षा में मेरे प्रति उनकी जिम्मेदारी तो क्या, प्रेम को भी भूल गए। मैं मानता हूँ, मेरी अनेक गलतियाँ थीं-- स्वयं के प्रति एवं उन सब के प्रति जो मुझसे जुड़े रहे या जुड़ने का ढोंग करते रहे। मनुष्य योनि कठिनाइयों से कभी अलग रह नहीं सकती।

मेरी कठिनाइयाँ तब शुरु हुई जब गृहस्थ रहते, अन्य लोगों के बहकावे में आकर मेरे अपने भाई ने मेरे खिलाफ षड्यंत्र रचा था। बात हाथापाई तक पहुंच गई थी। जमीन विवाद का मसला था। बाबूजी बिना जमीन का बंटवारा किए स्वर्ग सिधारे थे। उनके अर्जे हुए संपत्तियों को हमने बाँट लिया था, पर गैरों के प्रभाव में आकर उसे मेरे अर्जे हुए जमीनों पर हक जमाना था। कोर्ट-कचहरी भी हुई, वह हार गया। फिर उसने अपने और मेरे आंगन के बीच एक दीवार बना ली। शब्दों का आदान-प्रदान बंद-सा हो गया। मनुष्य स्वार्थ में कितना बेवकूफ़ हो जाता है।

मेरे छह संतान थे(या हैं)। तीन बेटे और तीन बेटियाँ। उम्र के हिसाब से सचिन बड़ा था फिर अकिरा, सोम, रजनी प्रभा और अमन का नंबर आता था। इन सब में मुझे प्रभा से अत्यधिक लगाव रहा। इसके कई कारण थे। अकीरा और रजनी का विवाह बहुत जल्द हो गया था। सचिन और सोम पढ़ाई के सिलसिले में बाहर ही रहते थे और अमन सचिन के साथ ही पढ़ता था। भाई के खिलाफ मुकदमे के दौरान, प्रभा ने मानसिक तौर पर मुझे बहुत मजबूत रखा था। पर आजतक मुझे एक बात का दुःख है-"मैंने उन पर भरोसा रखा, जिन्हें मेरी परवाह नहीं थी; पर जिन्हें थी उन्हें परवाह करने का मौका ही नहीं मिला- शायद मेरी वजह से या उनके अपनी सीमाओं के वजह से।"

सोम को मैंने बहुत जल्दी खो दिया था। भगवान ने उसे एक लाईलाज बीमारी का शिकार बना दिया। सचिन बहुत कम ही मेरे पास रहा, अतः मुझे उसके प्रत्यक्ष भावों का कभी आंकलन नहीं हुआ, किंतु पुत्र-पिता संबंध के वश में मुझे उस पर अति विश्वास रहा। वह जब भारत के एक प्रख्यात संस्थान में 'असिस्टेंट इंजीनियर' बना तो 'रिटायरमेंट' के कई साल बाकी होने के बावजूद मैंने नौकरी छोड़ दी। मैं वह बुढ़ा वृक्ष हो चूका था जिसे अब अपनी टहनियों के फ़ल का स्वाद पाना था। पर वे फ़ल बेवफ़ा निकले। सचिन ने जब मेरे प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा किया, तो मैं बेसहारा रह गया था। उसने अपनी उपलब्धियों का श्रेय स्वयं को देना ही ठीक समझा। ऐसा नहीं है वह नहीं आया। वह आया पर परेशानियों को और बढ़ाने। प्रभा की शादी उसी ने ठीक की। मुझे लगा वह जिम्मेदार बन रहा है। पर जहाँ वह गई, वहाँ पर गरीबी की सीमा पार थी। लेकिन विदाई के वक्त भी वह मुस्कुरा ही रही थी। उसने मुझे सिखाया मनुष्य को हर परिस्थिति में कैसे संतुष्ट रहना चाहिए। वह लक्ष्मी थी, अतः उसके ससुराल की गरीबी ज्यादा दिन नहीं रही।

सचिन मेरे जीवन की सबसे बड़ी हार रहा। प्रभा के बुरे वक्त में, उसके हाथों में समाधान रहते हुए, उसने मदद करने से इंकार कर दिया था। मेरे वृद्धावस्था में मेरा कई रोगों से साक्षात्कार हुआ। वह ऐसे स्थान पर था, जहां उसे परिवार चलाने तक का भत्ता मिलता था। पर वह मेरे रोगों के ईलाज से ज्यादा, मेरी दवाइयों के बिलों का उत्सुक रहता था ताकि उसे वह कंपनी में दिखाकर पैसे समेट सके। मनुष्य धन की आकांक्षा में सर्वोच्च रिश्ते भूल जाता है। जो भी उसने किया, उसका परिणाम उसे भोगना पड़ा। पहली पत्नी गुजर गई। बेटी रास्ता भटक गई और बेटा बेरोजगार रहा। दूसरी पत्नी ने उसकी मति और भ्रष्ट कर दी। पर फिर भी स्वार्थ उसका कम न हुआ।

मैं इस शीला पर बैठा अपनी बीते हुए योनि की रूह हूँ। आज मेरा श्राद्ध है। बहुत जोरों से तैयारी हो रही है। इतनी तैयारी मेरे जीवन को बचाने में भी नहीं हुई। अंतिम समय में मेरे कष्ट की कोई सीमा नहीं थी जिसकी चिंता प्रभा के अलावा किसी को नहीं हुई। वो रातों को कराहना; वो भोजन को तिरस्कारना आज भी मुझे कँपा देती है। जब प्राण छुटे, तब सचिन को आने में पल भी ना लगा। आज मैं धरा छोड़ने वाला हूँ। ईश्वर से कहूंगा-"तेरी बनाई सबसे सुंदर चीज (मनुष्य); कुरुप हो चली है"। काश! प्रभा मेरा बेटा होती। काश! मैंने नौकरी न छोड़ी होती। धर्म सच में नष्ट हो रहा है। कल्की अवतार का समय निकट आ रहा है।

लक्ष्य

चित्र स्त्रोत: इंटरनेट से ।

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