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क्विज़ कंपटीशन

तो कहानी यूँ है कि एक बार मुझे स्कूल से एक क्विज़ कंपटीशन के बारे में बताया गया। मसला यह था कि वो क्विज़ के सिर्फ चार दिन पहले बताया गया था।

मैं दुविधा में था। मुझे एक साथी की जरूरत थी। दो लोगों को भाग लेना था। वैसे ज्यादा तकलीफ़ नहीं हुई मुझे साथी ढूँढने में। हमारी दोस्ती बहुत पक्की थी। फिर हमने चर्चा की कि तैयारी कैसे की जाए! हमें कोई आईडिया नहीं था उस क्विज़ के बारे में। कभी पढ़ा भी नहीं था उन टॉपीक्स को। पर उन चार दिनों में हमने कुछ स्त्रोतों से पता किया और कुछ संभावित प्रश्न बनाए, जो बाद में हमारे लिए तिनके का सहारा बने।

फ़िक्र नहीं थी हमें हारने की पर फ़िक्र थी बेईज्जती की। आखिरकार आधी अधूरी तैयारी के साथ, उस दिन का हमनें स्वागत किया। पर उस दिन सुबह में एक और दुविधा आ गई। अखबार में देखा कि 'बंदी' की घोषणा हो गई थी।

उस खबर से हम दुविधा में थे कि खुश हों कि बेइज्जती नहीं होगी, या दुःखी हों कि मौका हाथ से निकल रहा था। स्कूल तो बंद था, पर क्विज़ बंद था या नहीं वो पता करना था। तो एक बहुत पहुँचे हुए सर को फोन लगाया मैंने। उन्होंने थोड़ी देर में कंफर्म करके बताया कि क्विज़ कैंसिल नहीं हुआ था। पर फिर मेरे और मेरे साथी के सामने वहाँ तक पहुँचने की समस्या थी। सोच रहे थे कैसे जाएँ...

फिर मैंने सर को वापस फोन लगाया। मैंने पूछा कि हमें स्कूल के तरफ से ट्रांसपोर्ट मिलेगा की नहीं। उन्होंने पूछ के बताने के लिए वक्त माँगा। हमें जवाब पता था। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। पहले भी कितने ही बार हमें ट्रांसपोर्ट के लिए भीख माँगनी पड़ती थी। फोन आया और जिस जवाब का बेइंतहा इंतजार था वहीं जवाब मिला-

"ट्रांसपोर्ट नहीं मिलेगा, पर प्राईवेट ऑटो करने का पैसा मिल जाएगा।"

हमें यह स्थिति हास्यास्पद लगी। बंदी थी। ऑटोवाला कोई तैयार भी नहीं होता। अगर तैयार हो भी जाता तो गारंटी नहीं थी कि क्विज़ तक पहुँचने तक जिंदा बचेंगे या नहीं। मैंने फोन करके कह दिया कि अगर ट्रांसपोर्ट नहीं मिला तो हम नहीं जाएंगे। हम जान जोखिम में नहीं डाल सकते थे।

क्विज़ 3 बजे था। सुबह बीत गई थी। हमें कुछ नहीं पता था क्या होगा। पर 2 बजे के आसपास सर का फोन आया - "चलो हम ले चलते हैं... बाइक पर।"

उन्होंने मुझे स्कूल से पीक किया। मैं स्कूल के पास ही रहता था। फिर थोड़ी दूर जा कर मेरे साथी को भी पीक किया। हम ट्रिपल सीट जा रहे थे। सिटी में ऐसे जाना वह भी बंदी में, खतरे से खाली नहीं था। पर हम निकल चुके थे। हमारे उपर अब सर के भरोसे पर खड़ा उतरने की जिम्मेदारी भी थी। हम बाइक पर ही डिस्कस किए जा रहे थे। सर की पीठ को टेबल बना कर एक दूसरे के नोट्स मिला रहे थे।

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किसी तरह बिना किसी मुसीबत के हम क्विज़ पर पहुँच गए। सर ने पूछा वापस आने के लिए पैसे थे या नहीं हमारे पास। हमने हामी भरी। उसी वक्त सर ने एक डायलॉग मारा (जिसकी उन्हें आदत-सी थी)-

"किसी भी कंपटीशन में जीत या हार मायने नहीं रखते। मायने रखता है कि तुम कितनी तैयारी के साथ उसमें हिस्सा लिएतुम लोग पूरी कोशिश करना... हारो या जीतो मुझे तुम दोनों पर गर्व है।"

और फिर हम दोनों अपनी मंजिल की तरफ मुड़े- पोस्ट ऑफिस, राँची। वह फिलैटली क्विज़ था। स्टांपों के बारे में। जिसके बारे में कभी जानने की हमने कोशिश भी नहीं की, उस दिन उसका क्विज़ देना था।

हम अंदर पहुँचे और किसी बरसों से खाने को तरसा हो, ऐसे आदमी ने हमें क्विज़ रूम तक जाने का रास्ता दिखाया। वहाँ हमें पता चला कि हमारे प्रतिद्वंदी जेवीएम श्यामली और डीपीएस राँची जैसे महारथी थे। हमें देख कर उनके चेहरे पर आई एक अजीब-सी हँसी मुझे खल रही थी। मन में जोश था कि उन्हें उस हँसी की कीमत दिखाएँगे, पर दिल जानता था कि हम तैयार बिल्कुल नहीं थे।

15 मिनटों में क्विज़ शुरू हुआ। जज़ों को देख कर लग रहा था कि कोई छठ पूजा समिती की बैठक हो रही हो। वैसे, पोस्ट ऑफिस से और क्या उम्मीद करते। मैंने सोचा क्विज़मास्टर कैसा होगा! कुछ देर में उसकी एंट्री हुई। वैसे तो हमने कई क्विज़ों में भाग लिया था। एक-से-एक क्विज़मास्टर देखे थे। पर ये उनके नौकरों के पीए जैसा लग रहा था। फिर मैंने सोचा उसके बोलने का अंदाज कैसा होगा! उसके पहले शब्द मैं शायद ही समझ पाया था। लगा जैसे मुंह में अंडा दबाए हुए है। ऊपर से अंग्रेजी में बोलने की उसकी कोशिश! आहाहा! लाजवाब!

पहले राउंड में हम लोग शामिल थे। जेवीएम और डीपीएस दूसरे राउंड में डाले गए थे। सही जवाब के 2 अंक मिलते। गलत के नेगेटिव अंक नहीं थे। पहले राउंड के हर सवाल के लिए 2 मिनट दिए गए थे सोचने के लिए। अटेंप्ट्स पर कोई लिमिट नहीं था। जवाब नहीं आने पर अगले टीम को पास हो जाता। और किसी को भी जवाब नहीं आने पर सवाल आडिएंस को चला जाता।

क्विज़मास्टर जैसे जैसे हमारे पहले सवाल के शब्दों को एक वाक्य में पिरो रहा था, हमारी धड़कनें तेज हो रहीं थीं-

वीच
वाज

फर्स्ट
स्टांप
ऑफ
इंडिया ?

उसके सवाल खत्म होने से पहले ही मेरे जबान से निकल गया- सिंद डॉक, क्योंकि मुझे यही स्टांप से रिलेटेड फैक्ट्स पता थे।

हमें 2 अंक मिल गए।

अगली बारी में सवाल था -
वीच वाज द फर्स्ट कलरफूल स्टांप ऑफ एशिया?
हम सोचते रहे, सोचते रहे। उन कमरों के कोनों में सटी मकड़ों की जालियों से आशा की उम्मीद करने लगे। 2 मिनट कैसे भी बिताना तो था ही। समय बीत गया। पता चला की जवाब था सिंद डॉक, जो पिछले सवाल का जवाब था। पर हमें पता नहीं था। मुझसे जोर से निकल गया - "ओह शीट!" शायद अंतिम पंक्ति में सो रहे अंकल की रूह कांप गई होगी...

अगला सवाल था- एल्बीनो स्टांप का मतलब
लिट्रेली तो उसका मतलब सफेद होता है। मैंने कह दिया - सफेद स्टांप। कुछ देर क्विज़मास्टर मेरी नजरों में नजरें मिलाए खड़ा रहा। मुझे एक पल के लिए लगा उसके मुंह में पान था।
उसने कहा- "फिलैटली के परिप्रेक्ष्य में बताओ ।"
मैंने कहा- "कलेक्शन ऑफ वाइट स्टांप्स।"
उसने कहा अगर कोई और या आडिएंस जवाब नहीं दे पाए तो हमें अंक मिल जाएँगे। तभी मैंने डीपीएस के एक बंदे को आडिएंस में इसका जवाब सर्च करते देखा। जिंदगी में पहली बार मुंह से मेरे गाली निकल गई (धीमे से ही)। उस पागल ने जवाब दे दिया- कलेक्शन ऑफ कलरलेस स्टांप्स। सफेद रंग सतरंगी होता है। हम हैरान हो गए।

अगले सवाल हमें पता नहीं थे। फिर लास्ट क्वेश्चन ऑफ द राउंड। मुझे ठीक ठाक सवाल याद नहीं। पर उस बार मेरे साथी देव ने नैया पार लगा दी। हमारे कुल 4 अंक थे। हम आडिएंस सीट पर बैठ गए। दूसरे राउंड वाले सवाल आसान लग रहे थे। वैसे भी ऐसे क्विज़ों में आडिएंस में बैठ कर पता नहीं क्यों हर सवालों के जवाब आने लगते हैं। मैं और देव घर जाने की तैयारी कर रहे थे। पता था हम तो सिलेक्ट होंगे नहीं। दूसरा राउंड खत्म हुआ।

फिनाले में पहुँचने वाले स्कूलों का नाम बताया जा रहा था:

डीपीएस
जेवीएम
कोई स्कूल
कोई स्कूल
कोई स्कूल...

और फिर जैसे ही हम गेट के तरफ उठने को तैयार हुए कि...

डीएवी नंदराज।

हमें विश्वास नहीं हुआ। कुछ ही देर में फिनाले स्टार्ट होने वाला था।

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फिनाले शुरू हुआ। पहले दो सवाल गलत हो गए। तभी तक और किसी स्कूल का भी खाता नहीं खुला था। तीसरे सवाल पर मेरा और देव का झगड़ा हो गया।
सवाल था जेडीएस टाटा के बारे में। उन्होंने पहला प्लेन उड़ाया था भारत में जिसके सम्मान में स्टांप निकाला गया था। कौनसे वर्ष में प्लेन उड़ाया था?
मुझे पता था: 1911। पर माइक देव के पास था। मैं उसे बोला 1911 कहने -
"बोल
बोल
बोल", पर उसे लकवा मार दिया उस वक्त। वो नहीं बोला। काश मैंने माइक छिन के बोल दिया होता। बगल वाले टीम को पास हो गया। उन्होंने जवाब दे दिया- 1911। मैंने देव को बहुत सुनाया। पर वह कुछ बोला नहीं।

अगला सवाल हमने अटेंप्ट नहीं किया। आखिरी सवाल था। अब तक हमारे 0 अंक थे और बगल वाले टीम के पास 1 अंक। यह रैपीड फायर था। बैक-टू-बैक 5 सवाल सब टीम से। हमसे पहले वाली सारी टीमें एक भी सवाल का जवाब नहीं दे पाई। मेरी आँखें अब भी उस डीपीएस वाले बंदे को गालियाँ दे रहीं थी जिसने इंटरनेट पर जवाब देखा था... अब बोल बेटा, अब क्यों चुप है ?

अब हमारी बारी थी। वो 5 सवाल आने वाले थे। मुझे सब याद नहीं। पहला था- किस पहले विदेशी के लिए इंग्लैड में स्टांप निकला था? मैंने जवाब दे दिया- महात्मा गांधी । पर देव ने अगले दो सवालों के जवाब ताबड़तोड़ दे दिए जो मुझे भी नहीं आते थे। 5 में से हमारे 3 सही हुए। शायद देव ने मेरी डाँट का जवाब ऐसे दिया। अगले टीम का भी खाता नहीं खुला। जज़ ने माइक उठाई----

"विनर इज:
डीएवी नंदराज।"

हम झूमने लगे। जेवीएम और डीपीएस वालों की आँखों में वो जलन मानो हमारा विजयघोष कर रही हो। वह अवार्ड, वह प्राइज: जिनकी उम्मीद भी नहीं थी, अब हमें दिया जा रहा था।

इसलिए उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए, चाहे कैसे भी स्थिति हो। क्योंकि भाग्य भी उनका साथ देता है जो डट कर लगे रहते हैं अपने काम में।

लक्ष्य।

चित्र स्त्रोत: इंटरनेट से।

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