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माहवारी

ग्रामीण महिलाओं द्वारा सहे जाने वाले माहवारी से संबंधित अंधविश्वासी परंपराओं को तोड़ने का एक छोटा- सा प्रयास ।

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कितने सपने देखे थे
पर शायद नहीं देखने चाहिए थे;
क्योंकि सपना देखना भी एक अधिकार है
जो शायद मुझे मुनासिब नहीं।

हकीकत के इस दलदल में
मैं आज फँसी पड़ी हूँ।
अपने पर गर्व करने वाले इस समाज में
मैं माहवारी की मारी हूँ।

दिल दहल जाता है जब वे दिन पास आते हैं।
औरत होने का दुःख अक्सर सताने लगता है।
फिर वहीं कष्ट फिर वहीं पीड़ा
ना कोई समझने वाला ना साथ निभाने वाला
मैं माहवारी की मारी हूँ.....

रक्त की पहली बूँद और मैं किवाड़ बंद कर लेती हूँ।
एक चारदीवारी में दुनिया समेट लेती हूँ।
ना किसी से बात करती हूँ ना ही स्पर्श
मैं माहवारी की मारी हूँ....

बड़े वायदे करके लाए थे मुझे
कपड़े के सिवा और कुछ मिला नहीं
पैड तो सपनों में देखे थे एक दिन
पर मैं तो माहवारी की मारी हूँ.....

मेरे बच्चों की सबको फिक्र है
पर जहाँ से वो आए हैं उसकी किसीको पड़ी नहीं
संक्रमण के समंदर में मैं बिन नौका विचरती हूँ।
मैं माहवारी की मारी हूँ.....

मैं जगत की जननी पूजा नहीं कर सकती हूँ
जिससे जन्म होता है उस प्रक्रिया से जो गुजरती हूँ।
कभी कभी स्वयं को शापित मानने लगती हूँ,
मैं माहवारी की मारी हूँ....

एक आशा मेरी भी है समाज के संकीर्णों से
एक दिन उन्हें अपनी गलतियाँ समझ आएँगी
शिक्षा पर मुझे पूरा भरोसा है
एक दिन इन घिसे परंपराओं को तोडेंगे।
तब तक के लिए मैं अपवित्र हूँ, अछूत हूँ;
मैं इस समाज की मारी हूँ....
मैं नारी योनि की मारी हूँ.....

लक्ष्य

क/टि: यह कविता २८ मई को यूनिसेफ द्वारा मनाए जाने वाले "अंतर्राष्ट्रीय माहवारी स्वच्छता दिवस" के उपलक्ष्य में मैंने लिखा था।

चित्र स्त्रोत: IMA MSN GOA 2020

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