बांबोळी
किसी जमाने में, अनोखा था मेरा बांबोळी;
आज उसका वह रूप स्वप्न में भी नसीब नहीं।
मानव ने कैसा किया प्रकृति में हस्तक्षेप;
तहस-नहस हो रही है, बांबोळी की जीवन-रेल।
हूँ मैं रोज का मुसाफ़िर इस इलाके का,
है विद्यमान यहाँ, महाविद्यालय वैद्यकी का।
किंतु यहाँ के रास्ते से गुजरते हुए
लगता है मानो यहाँ का एक-एक कण रोता है।
कितना था मनोरम दृश्य विशाल पहाड़ों का,
उस पर पल रहे वृक्ष मानो स्वागत करते हर यात्री का।
आज वे पहाड़ नेस्तनाबूत हैं पड़े हुए;
सड़क को चौड़ा करने का कैसा फल यह मिल रहा।
नहीं ये सिर्फ बांबोळी की दुर्दशा,
पूरे विश्व का वातावरण हो रहा है खराब;
मनुष्य के पापों का घड़ा है धीरे-धीरे भर रहा,
एक दिन महाप्रलय से, हर कोई हो जाएगा बेचारा।
लक्ष्य
क/टि: बांबोळी गोआ का एक पहाड़ी इलाका है। यह कविता, "मांडवी" कविता के तर्ज पर लिखी गई थी। दोनों कविताओं का आशय प्रकृति से होने वाले खिलवाड़ की ओर ध्यान बढ़ाना है ॥
चित्र स्रोत: इंटरनेट से।
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