औरत
बहुत ख़्वाब देखती रही हैं यह आँखें
बचपन से आसमान में उड़ने के,
भूल जाती हैं कि औरत ज़ात हूँ
आज़ादी नहीं मुझ को उड़ने की,
बचपन में भी बेड़ियाँ थी मेरे पैरों में,
उम्र के इस पड़ाव पे भी मैं बे-पर हूँ।
जिस आँगन की मिट्टी से महक
बीता सारा बचपन मेरा,
बाबुल के उस मकान में अब
कोई दीवार सहारा नहीं देती मुझको,
ना ही सर छुपाने को अपना
कोई कमरा मेरा है उस घर में ।
ससुराल के इस मकान में
कुछ ईंटें हैं मेरे भी खून-पसीने की,
मगर हक़ नहीं इस पर मेरा कोई
तख़्ती इस पर है औरों के नाम की,
मायके पर कोई हक़ नहीं था मेरा
इस घर में भी मैं बे-घर हूँ ।
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