पुकार
दूध का कर्ज ना समझता कोई
तभी तो आज सडकों पर डुल रहा है ये
कोई पूछे उस गाय से जिसके बछड़े से छीन
ये दूध लिया हमने
क्या हक हमें कि इसे यूँ धरती पर रोलें?
जो दिखाना रोष तुम्हे तो क्यूँ आहार का अपमान करते हो
क्यों जानवर के मुंह से छीन धरती को अर्पण करते हो
नहीं सराहती वो ये कर्म तुम्हारा
क्योंकि वो ज़रूरत को समझती है
है आदमी नासमझ, पर वो समझती है
पर ना कह पाती कुछ
बस चुप चाप देखती है
देखती है जब उसकी गोद से निकली उपज
सडकों पर वाहनों के नीचे आती है
रोती है, चीखती पर
उसकी किसको पड़ी है
जब उसके बच्चों की भूखी आह किसी को नहीं सुनती
तो उसकी चीख कैसे सुने
वो पुकार कैसे सुने जो सबसे कहती है
ये ज़ुल्म ना करे
औरों की ना सही पर उसकी ही सुन ले।
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