
तन्हा
जलती धूप में तन्हा पेड़
अक्सर सोचता होगा
कि मेरा जीवन भी कितना विचित्र होता
जो मैं पेड़ ना हो इंसान होता
तो कोई और पेड़ होता
जो इस तपती धूप में
मुझे छाया देता
मुझे फल देता या फिर फूल देता
जिनकी सुगन्ध से मैं
इस तपन को भी भूला देता
जो मैं इंसान होता तो मैं चल फिर सकता
एक ही जगह पर स्थिर ना हो
जगह जगह घूमता
जो मैं इंसान होता
तो मैं ना जाने कैसा होता
उस लक्कड़हारे की तरह होता जो
मुझे काट बाजार में बेच देता है
या उस मजदूर की तरह
जो मुझे काट जगह को सपाट कर
उसे मालिक को दे देता है
मैं जैसा भी होता
जीवन बहुत विचित्र होता
या क्या पता मैं तब भी
इस तपती धूप में तन्हा ही होता।
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