
चाहत
ना मुझे चाहतों ने थामा है
ना हंसीं खाबों की तामीर ने
मुझे जकड़ा है
तो एक अंजनी सी उमंग ने
जो मुझे डरा रही है
मेरे चैन-ओ-सुकून को
मुझसे दूर कर रही है
ना कल का पता है
ना पल का भरोसा
फिर ये कौन सी उमंग है,
जो मेरे दिल को छू,
उसमें तरंग उठा रही है?
ना सोचा कभी एक उज्जवल भविषय होगा
फिर क्यों आज उसकी चाहत इस दिल में है
चाहतों का मोल बड़ा ऊँचा होता है
क्या उस मोल को चुका पाऊंगी कभी
ये सवाल अक्सर खुद से पूछती हूँ
कहती हूँ खुद को,
डांटती हूँ
क्या रोग लगाया है मैंने?
किस उमंग को दिल मे बैठाया मैंने?
ना होता उमंग का अंत कभी
ना चाहत कभी किसी की रुकती है
ये तो वो नासूर है
जिसे अपने दिल को लगाया मैंने
देगा ये दर्द अब
रह रह कर अब ये सताएगा मुझे
तड़पेगा कि
एक उमंग को दील में बसाया मैंने।
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