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कविता

हर रात की ही तरह
सब सोए हैं
पर मैं जग रही हूँ
सोच रही हूँ कुछ लिखूँ
पर इस ज़हन में कोई ख्याल आता ही नहीं
कोई ख्याल नहीं जिसे लिख बयां कर सकूं
कोई जज़्बात नहीं जिसे ज़ाहिर करने को
दिल तड़प रहा हो
कोई दर्द नहीं जिसे बताना जरूरी हो
कोई खुशी नहीं जिसे बांटने का जी करे
सब खाली है
दिल और दिमाग सब पे घुप अंधेरा है
और यही अंधेरा खलता है
ख्यालों का शोर तो है
पर स्पष्टता  नहीं
कहने का दिल तो है
पर लफ्ज़ साथ नहीं
इन लफ़्ज़ों से भी आजकल दूरी है
हर रात की ही तरह ये लफ्ज़ दूर हैं
और मैं अकेली हूँ।

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