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इंतज़ार

मैं जलाती हूं दीया आशा की किरण के इंतज़ार में,
कैसे कहूं मैं पल-पल जलती हूं इसी इंतज़ार में।

बिन तारों के आसमां के नीचे
मैं देखती हूं सपने हर रोज,
मुझे शक नहीं अपनी किस्मत पर,
सवालों के घेरे में तो मैं खुद हूं,
कैसे कह दूंगी मैं हां उसे?
अगर ना खिल पाया कोई फूल
इस बंजर ज़मीन पे?

फिर एक करवट जो मैं बदलूंगी,
देखूंगी एक टूटते चांद को,
उस दिन या तो मैं संवर जाऊंगी,
या चांद समा जाएगा धरती के गर्भ में,
और बिखरेंगी वात्सल्य की चांदनी मेरे आंगन में।

— सुचित्रा प्रसाद

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