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20 | ट्रेन की वह मुलाक़ात

ट्रेन की वह मुलाक़ात

रेलगाड़ी की खिड़की से पीछे की ओर चले जाते दृश्य ऐसे प्रतीत होते थे जैसे जीवन गुजर रहा हो। जीवन के बीते लम्हों में झाँकने के लिए ट्रेन से बेहतर बंदोबस्त भी तो नहीं है।

मैं दस मिनट में दो बार घड़ी और चार बार तुम्हे देख चुका हूँ। तुम्हारी मुस्कान की एक ज़ेरॉक्स कॉपी मेरे मस्तिष्क के अंतरिक्ष में उल्कापिंड सी विचरण कर रही है।

मन विचलित है। दुविधाओं से घिर चुका है। अनायास ही तुम्हारी आध्यात्मिक परिधि में घुसपैठ करने की युक्तियाँ खोज रहा है। सोच रहा है कि क्यूँ तुमने वो पुरानी ट्रेन की टिकट फेंक दी? क्या वह तुम्हारे मन पर एक भार थी जिसे फेंक कर अब तुम स्वतंत्र महसूस कर रही हो? तुम्हारे अश्रु जिन्हें तुम झूठी छींक के पीछे छुपा चुकी हो उनमें क्या क्रोध का भाव था या पश्चाताप का?

अक्सर सफ़र में पिछले सफर की यादें ताज़ा हो जाती है, तुम्हारी भी हो गयी होंगी । खैर मैं तुम्हे अभी इतना जानता नहीं हुँ कि इस नतीजे पर इतना जल्दी पहुंच जाऊं।

मैं जानता हूँ तुम यह एहसाह नहीं होने देना चाहती कि कुछ है जो तुम्हे परेशान कर रहा है और शायद इसीलिए तुम इतने किस्से कहानियाँ सुना रही हो और देखो कंपार्टमेंट के लोग कैसे उत्सुकता से सुन भी रहे हैं। तुम्हारा शिलांग का सफ़र, होस्टल के किस्से, और जनाब रसकिन बॉन्ड से साहित्य मेले में मुलाकात वाली बात मुझे ख़ासतौर पर बेहद दिलचस्प लगी। सुनने में इतना मज़ा आया कि पता ही नहीं चला कि कब मथुरा से कोटा आ गया।

क्या गलत होगा अगर मैं तुम्हें कहानियों की ऑडियो बुक कहूँ? वही तो हो तुम...लेकिन तुमने वो टिकट फेंकने की कहानी क्यूँ नहीं बताई? क्या पता कुछ पर्सनल हो!

वैसे रेल का सफर भी एक नई कहानी सा ही होता है। यह तुम मुझसे बेहतर जानती हो। मुझे अच्छा लगा जब तुमने मुझसे तिल के लड्डू के लिए पूछा।

पर मैं क्या करता? मना करना पड़ा वरना तुम्हे लगता मुझमें शिष्टाचार का अभाव है जो की नहीं है लेकिन फिर तुमने दूसरी दफ़ा पूछा ही नहीं और खुद माँग लूँ, यह भी सही नहीं है, तो अब मैं अपने घटिया चिप्स से काम चला रहा हूँ।

हाँ, वैसे मैंने देखा तुम किस तरह चाय वालों को बीच बीच में ताक रही हो। तुम्हारा मन कर रहा हो क्या पता...पर मैं भी तुमसे तब तक नहीं पूछुंगा जब तक तुम खुद न कह दो। क्या पता तुम्हे चाय पसंद ही ना हो और बस सिर्फ तुम्हे किसी की याद दिलाती हो। टिकट तो तुमने फेंक दी, क्या पता गुस्सा चाय पर भी निकल जाए!

तो जैसा कि मैंने पहले कहा, हर पल कुछ पीछे छूटता जा रहा है, मानो रेल नहीं जिंदगी हो...काश यह तुमसे भी कह पाता। वह पुरानी टिकट अब इस रेल से बहुत दूर जा चुकी है। हम आगे बढ़ चुके हैं, पर तुम कहाँ हो?

" चाय से अगर नाराज़गी ना हो तो क्या दो कप बोल दूँ?"

"हाँ हाँ क्यूँ नहीं, चाय से भला कैसी नाराज़गी।"

चाय हाथों में थमा दी गयी। चाय वाले को पैसे देते वक़्त बहस हुई। बहस का अंत हुआ। पैसे चुकाए गये। चाय की पहली चुस्की ली गयी।

"स्टेशन पर अच्छी चाय मिल जाना बड़ी किस्मत की बात है?"

"ट्रेन में अच्छे लोग मिल जाना भी किस्मत की ही बात है!"

"जी?"

"मेरा मतलब है कि बहुत कम बार ही ऐसा हुआ है कि कोई इतने दिलचस्प किस्से सुनाए जैसे आपने सुनाए...वैसे आई एम हेमंत एंड यू?"

"अभिलाषा...पर वैसे मुझे सब हिप्पी बुलाते हैं!"

"क्योंकि आप घूमना ज़्यादा पसंद करती हैं..."

"नाम तो हालाँकि बचपन में ही निकल गया था लेकिन हाँ मुझे घूमना बहुत पसंद है...मैं एक जगह टिक ही नहीं सकती!"

"टिकना चाहिए भी नहीं...लाइफ ट्रेन की तरह चलते हुए ही अच्छी लगती है।"

"बातें तो आप भी अच्छी कर लेते हैं? आप क्या अकेले आयें हैं? आपकी वाइफ?"

"वॉट...? माई वाइफ...?" मुझे ज़ोर से हँसी आ गयी और मैं हँसी रोकते हुए बोला, "मेरी शादी नहीं हुई है! आई आम बैचलर...हिप्पीजी वैसे आपको क्यूँ लगा की मेरी...कहीं आपकी तो नहीं हो गयी?"

"वॉट...? नो नो नो मिस्टर हेमंत, मेरी खुशियों की अभी एक्सपाइरी डेट नहीं आई है..."

"मुझे भी शादी का आइडिया कुछ खास पसंद नहीं है लेकिन यह कह देना की खुशियाँ ही ख़त्म हो जाती है थोड़ा सा एक्सट्रीम है।"

"आपको क्या पता?"

"आपको भी क्या ही पता? आप ही ने तो कहा आपकी शादी नहीं हुई है, हैं ना?"

तुम्हारा हाँ इतना हल्का और दबा सा आया कि मैं समझ गया उसमे कितने सत्य की मिलावट है। ट्रेन स्टेशन पर रुक गयी और तुमने एक अख़बार खरीद लिया। खबरों से ज़्यादा दिलचस्पी तुम्हारी अब चेहरा छुपाने में थी। फिर अचानक से मैनें वह बात पूछ ही ली।

"आपने कुछ देर पहले वह टिकट क्यूँ फाड़ के फेंक दी थी?"

बस इतना कहना था कि जैसे तुम्हारी साँसे अटक गयी हो। तुम्हारे चेहरे के भाव से पता चल रहा था कि जैसे कोई राज बेपर्दा हो गया हो जो तुम बड़ी मेहनत से छुपा रही थी।

ट्रेन चल पड़ी और तुम भी छींकने की बहुत बुरी एक्टिंग करते हुए तुम डब्बे के पिछले छोर की ओर चली गयी। मुझे कुछ अजीब लगा तो मैं भी तुम्हारे पीछे आ गया। ट्रेन के बेसिन में तुम अपना चेहरा धो रही थी और फिर अपनी सलवार से ही उसे पौंछ लिया। बेसिन के आईने से तुमने मुझे देखा और फिर ट्रेन के डब्बे का दरवाजा खोल दिया। अचानक से तेज़ हवा का एक झोंका आया और लगा जैसे हमें कहीं दूर उड़ा ले गया हो।

हम दोनों चुपचाप वहाँ खड़े एक दूसरे को देखते रहे।

"मैं शायद दो साल की थी जब मेरे पेरेंट्स ने मुझे ऐसी ही किसी ट्रेन मे छोड़ा होगा...मैं नहीं जानती क्यूँ और शायद जानना चाहती भी नहीं हूँ। लाइफ भी कितनी फनी है ना...जिस चीज़ से मुझे सबसे ज़्यादा डर लगना चाहिए था उससे मुझे सबसे ज्यादा प्यार है...ट्रेन्स!"

"यह तस्वीर देखो...बहुत पुरानी है! इस तस्वीर में जो वो तिरछी टोपी वाले हैं ना...वो मेरे बाबा हैं...उस दिन...न जाने क्या सोच कर मुझे अपने घर ले आए...और बस फिर इन्होंने ही मुझे पाला....और वो हैं मेरी अम्मो...हरी साड़ी में...कितनी खूबसूरत लग रहीं है। कभी एहसास ही नहीं होने दिया कि मैं उनकी नहीं हूँ। मैं नहीं बता सकती ये दोनों मेरे लिए क्या हैं..."

"ओफ्फो...मैं भी तुम्हे क्या बताने लगी...आई एम सॉरी...दरअसल तुम्हारे सवाल ने काफ़ी कुछ याद दिला दिया...तो कहाँ थी मैं...ट्रेन्स...हाँ...ट्रेन्स! तो मिस्टर हेमंत, ट्रेन से मेरा नाता बहुत पुराना है...बचपन में ज़िद करके ट्रेन का सफ़र करती थी...कहीं भी जाना हो, मैं उन्हे कभी बस में जाने ही नहीं देती..सिर्फ़ ट्रेन्स...एक अलग ही बॉन्ड था इन रेलगाड़ियों से मुझे..."

"किसी दोस्त से कम नहीं है मेरे लिए यह ट्रेन और यह छोटे मोटे सफ़र। तुम समझ रहे हो ना मैं क्या क...शायद तुम्हे भी लग रहा होगा मैं क्या बकवास कर रही हूँ, इन सब बातों का आख़िर क्या मतलब है...पर मुझे बोल लेने दो। मैं और चुप नहीं रह सकती। यही वो ट्रेन थी..."

"यही वो ट्रेन थी जहाँ हम पिछले बरस मिले थे। मेरे सामने की सीट पर कार्तिक बैठा था। मेरे हाथ में एम. ए. फाइनल की किताबें देखकर सवाल करने लगा और उसके सवालों में शायद मैंने खुद को ढूंढ लिया। ऐसा पहले कभी नहीं लगा था जैसा उस एक सफ़र में लगा...बहुत अलग सी फीलिंग थी..."

"मैं कार्तिक को पसंद करने लगी थी...और...और मुझे लगा था वो भी मुझसे प्यार...खैर...फिर हमारी काफ़ी मुलाक़ातें हुई। कहते हैं ना प्यार में इंसान कुछ और ही होता है, मेरे साथ भी वही हुआ। मैं खुश थी। काफ़ी खुश थी। सब कुछ कितना अच्छा था। तुम खुद बताओ जिस इंसान को उसके असली माँ बाप ने ही ठुकरा दिया हो उसको इतना ख़याल करने वाला मिल जाए तो वह क्या करे।"

"जब काफ़ी समय हमने साथ बिता लिया तो मुझे लगा बाबा अम्मो को हमारे बारे में बता देना चाहिए। मैंने कार्तिक से शादी की भी बात की और उसने हाँ भी किया लेकिन ऐसी शर्तें रख दी की मैं...मैं क्या करती...उसने मुझे घरवालों को बता देने से मना किया...और कहा कि भागने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।"

"मैं नहीं जानती तुम मेरे बारे में क्या सोचोगे लेकिन उस पल मुझे सिर्फ़ कार्तिक और उसकी बातें ठीक लगी...उसमे मुझे वो परिवार वो उम्मीद दिखी जो मैं हमेशा चाहती थी...कहते है ना प्यार अँधा होता है...ठीक कहते हैं...मैं सामान बाँध कर घर छोड़ कर चली आई, ट्रेन की टिकट भी मैनें करवाई...और..."

"वो कहता था कि मैं यह कर ही नहीं सकती...मैं डरती हूँ...लेकिन अगर स्टेशन वक़्त पर आ गयी तो भाग चलेंगे। मुझे याद है उसकी हँसी जब उसने वह बात कही थी। उसने कहा था हम इस जिंदगी में फिर नहीं लौटेंगे...एक नयी शुरुआत करेंगे। इससे खूबसूरत ख्वाब कोई हो सकता है, हेमंत? सब कुछ नया...नया घर, नये लोग, नई जिंदगी। मुझे यह सब चाहिए था, और इसीलिए मैं, अभिलाषा पंडित, बिना कुछ सोचे समझे, अपना सामान उठा इलाहाबाद स्टेशन पर आकर बैठ गयी..."

"फिर क्या हुआ?" मैने पूछा और तुमने फिर जो कहा उसी बात में मुझे मेरा जवाब मिल गया।

"फिर कुछ नहीं हुआ हेमंत...फिर बस मैं वहाँ पागलों की तरह बैठी रही...कोई नहीं आया। ट्रेन रवाना होने को थी लेकिन तब तक मैं बिखर चुकी थी। वह ट्रेन कि दो टिकट इतनी चुभ रही थी मुझे, मैं क्या...ओह...फिर न जाने कहाँ से वह आई...उसने अपने नाम कविता बताया और बोली कि कार्तिक नहीं आएगा। कार्तिक शादीशुदा है, यह सब वह पहले भी कर चुका है, बहुतों को ऐसे वादे कर चुका है...कविता सब जानती थी...वह उसकी बीवी थी...उसने सब कुछ बताया और मुझसे कहा कि मैं लौट जाऊं...मैं कहाँ लौटती...हेमंत? मैं ट्रेन में चढ़ गयी...यह वही ट्रेन है और वो वही टिकट थी।"


समाप्त


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