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16 | पत्रकार


एक आशिक़ की सरेआम हत्या हो गयी।

फिर एक शायर की हत्या हो गयी।

फिर एक पत्रकार की हो गयी।

और अब जब वह शायर जो पत्रकार बन गया था, या वह आशिक़ जो शायर बन गया था, उसने पत्रकारिता छोड़ एक राजनीतिक दल की सदस्यता ले ली...

...एकाएक उसकी हत्या भी रुक गयी।

*   *   *

पत्रकारिता जनता की प्रेमिका होती है। उसका दुख दर्द समझती है। उन पर बात करती है। मुद्दा बनाती है। इंसाफ़ दिलाती है।

लेकिन वही प्रेमिका जैसे अक्सर आपने फिल्मों में देखा होगा कभी कभी धोखा भी दे जाती है। पता नहीं चलता कब जनता की संकरी गलियों, मजदूरों के पसीने, किसानों की व्यथा से दूर सत्ता के गलियारों में पहुंच जाती है।

पता नहीं चलता कब वह प्रेमिका जो चीख चीख कर जनता की बात उन ऊंचे बादशाहों और बहरी हुकूमतों तक पहुंचा रही थी, वह उसी सत्ता की गोद में जाकर बैठ जाती है। खेलने लगती है।  

अब सवाल सत्ता से नहीं उल्टे जनता से होने लगते हैं। जो भाषा नेता बोलता है वही भाषा स्टूडियो में बैठ पत्रकारिता बोलने लगती है। कमाल का तालमेल बैठ जाता है। जनता को पता नहीं चलता कब खबर मनोरंजन बन गयी और मनोरंजन खबर।

सब मुस्कुराने लगते हैं। वो भी, यह भी। सब या तो भूल जाते हैं या भूलने पर मजबूर कर दिए जाते हैं की एक बहुत अच्छा रिश्ता बिखर गया है। इट्स आल ओवर।

*  *  *

एक बड़े नेता का इंटरव्यू होना था। पत्रकार को सख़्त हिदायत दे दी गयी थी की क्रांतिकारी सवाल नहीं पूछने हैं। अच्छे सवाल पूछने हैं।

उसने पूछा अच्छे सवाल कैसे होते हैं? अगले ही पल उसे एक पीला कागज पकड़ा दिया गया। 23 अच्छे सवालों की कड़क फेहरिस्त।

वाह कमाल है, अच्छे सवाल ऐसे होते हैं। कितना बढ़िया काम है। आम बात करनी है। धीमे धीमे। कोई जल्दी नहीं, कोई पसीना नहीं। एक अच्छा साक्षात्कार नेता और पत्रकार दोनों की जेबें भरने की क्षमता रखता है।

लेकिन इंटरव्यू शुरू होता कि पत्रकार को अपने पुराने दिन याद आ गए। वह मुस्कुराया। बीवी को फ़ोन किया। बोला आज खाने में राजमा बना दो। फिर इंटरव्यू शुरू हो गया।

थोड़ी सी हिचकिचाहट के बाद उसने चार पाँच ऐसे सवाल दाग दिए की नेताजी की जबान सिल गयी। पानी के घूंट गले से नहीं उतरे। आँखों से इशारे हुए। इशारे समझने में देरी हुई। कोई बचाने नहीं आया।

इंटरव्यू समाप्त। स्टूडियो मे अफ़रातफ़री। पत्रकार गायब। शायद समझ गया था की अब बचना मुश्किल है। कहीं छुपते छुपाते किसी दुकान पर सुन लिया होगा खुद का इंटरव्यू। देखा होगा की लोग बड़ी उत्सुकता से देख रहे हैं। नेता की बेचैनी और माथे का पसीना लाइव ब्रॉडकास्ट हो चुका था।

चाय की दुकानों की गपशप में मुद्दे गरमा गए थे। विरोधी स्वर तेज़ हो गए। अगले दिन अख़बार में यह तो नहीं छपा कि किसी ने लाउडस्पिकर से बुलवा दिया क्या बवासीर नेता चुने हो पर यह ज़रूर छपा कि एक फलां फलां पत्रकार ने अपने ही घर पर फाँसी लगा ली। 

साथ ही में पैसों का सूटकेस बरामद हुआ। मोटी रकम थी। विपक्ष ने खूब पैसा खिलाया होगा जैसी अटकलें तेज़ होने लगी। आत्महत्या के कारणों में आत्मग्लानि और मानसिक उत्पीड़न शामिल किए गये। लोगों ने पत्रकार को इंटरनेट पर जम कर गालियाँ दी तो कुछ लोगो ने उसकी याद मे मोमबत्ती मार्च निकाला।

बात कुछ दिनों में ही शांत हो गयी। वह इंटरव्यू भी गायब हो गया। पत्रकारिता भी गायब हो गयी। कहाँ गयी कैसे गयी, कौन जानता है। फिलहाल रात का पहर है, सब सो रहे हैं। प्रातःकाल जल्दी उठकर चाय नाश्ते के बाद ज़रूर पत्रकारिता को ढूँढा जाएगा।

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