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कुछ अल्फ़ाज ९: चाह

वो कहती है उसे नाग़वार है,
करना मेरी तारिफ़ें उसकी।
काश! कुछ खामियाँ होती उसमे,
जो मेरी कविताएँ उसे बता पातीं।

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नहीं है कुछ कहने को अब
शब्दों की कमी है,
जो तुमने लगाम लगा दी है
दिल सितम और आँखे नम-सी हैं।

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ऐसी कोई चाह ना रखो
जिसका कोई वज़ूद नहीं।
चाह ऐसी रखो
जिसमें कोई गहरी दूरदर्शिता भी हो।

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लिख-लिख कर तुम्हारे लिए परेशान हो गया यह शायर
क्या जरूरत है इतनी ज़ालिम होने की?
कुछ तो रहम कर इस दीवाने पर
जो अरसों से तड़प रहा है डालने को एक छाप अपनी तेरे रूह पर।

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तो बस इतनी सी ही थी नाराजगी मेरी
क्योंकि आखिरकार उसने फिर बात कर ही ली।
उसकी आँखें कहती थीं कैसे गुजरे ये दिन,
अब कोई दुविधा नहीं बस चारों तरफ़ है एक सौंधी-सी खुशी।

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जब मैं अकेला-सा था
लोगों को उतना पहचाना ना था,
तब उसने मेरा हाथ था थामा
आज मेरी उस सखी का जन्मदिन है।

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जहाँ तक तेरी नज़र पहुँचती है
दुनिया उससे कहीं बड़ी है।
मौकों की तलाश में हताश नहीं होना है,
बल्कि अंजाम तक खुद अपने मौकों को पहुँचाना है।

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चित्र स्त्रोत: इंटरनेट से।

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