कुछ अल्फ़ाज ३१: नज़्में
नज़्मों को कब तक कहानी बना के रखते?
चलिए अब आप सब से साझा कर ही हैं लेते...
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अगर पसंद हैं मेरे नज़्में जिन्हें
वे इन्हें पढ़ने से खुद को रोक ना पाएँगे।
तलाश करने की क्या ज़रूरत है?
वे बहार खुद ही मेरे करीब आ जाएँगे।
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हम हैं मुसाफ़िर बैठे इंतजार में अपनी रेल की,
खबर नहीं तो बस प्लेटफॉर्म क्रमांक की...
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हर मोहब्बत की शुरुआत तो चाहत से ही होती है,
अंजाम ना मिले तो खुद से झूठ ही बोलने लगते हैं।
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कल तक वो एक सच थी,
आज यादों में कहीं घुम है।
कल तक उसके दीदार होते थे,
आज सपनों में कहीं कैद है।
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किस्मत की बातें कौन जानता है?
बस कोशिश ही कर सकते हैं...
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खुबी है तुममें तो माँगने की ज़रूरत क्या?
फुल हो तुम तो ज़ताने की ज़रूरत क्या?
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अपनी ज़ुल्फों को एक तरफ़ लहरा के देखो एक बार
सौम्य-सी मुस्कुराहट छेड़ दो एक बार;
फिर देखो क्या नज़ारा बनता है-
कितनो का दिल धड़कने से इंकार कर देता है...
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जिंदगी का क्या है?
आज है कल चली जाएगी...
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फुल की खुबसूरती को सब निहारना चाहते हैं,
उसके काँटों की अहमियत को कोई समझता नहीं।
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चित्र स्रोत: इंटरनेट से।
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