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कुछ अल्फ़ाज २८

कुछ तुम मुस्कुराओ
कुछ हम नज़्में लिखें।
कुछ तुम शर्माओ
कुछ हम कविताएँ करें।

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वो चेहरा तो ना रहा
बस सुनसान गलियाँ दिखाई देती हैं।
वो दिल अब मेरा ना रहा
बस इमारतें टुक-टुक देखती रहती हैं।

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हम तो इस जिंदगी के समंदर में बिन चप्पुओं के नाव चला रहे हैं...
बस किनारा मिलने का इंतजार है,
तब तक बस विचरते जा रहे हैं-
अपने शब्दों के लहरों में बहते जा रहे हैं।

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उन खुबसूरत वादियों के बीच
आप एक सितारा बन चमक रही हैं।
शीर्ष पर व्याप्त आपकी नज़रें,
समंदर किनारे तक पहुँच रही हैं...

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अब जब अरमानों पर बंदिशें लगे हैं,
तो काहे का इज़हार, काहे का सोलह सोमवार?

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पर प्यार एक परिंदा है, जिसे खुला आसमान चाहिए।
पिंजरे में रहना भी कोई रहना है?
पंख हैं तो उड़ने दो,
उनके रहते हुए भी ना उड़ पाना भी कोई फ़साना है?

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वो एक ज़माना था-
जब अब भूत के पन्नों में दफ़्न हो चुका है।

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