कुछ अल्फ़ाज २२: पुनरागाज़
एक ज़माने में कबीर ने,
गुरु को अपनाया गोबिंद को छोड़ के।
आज गुरूओं की फ़हरिस्त में कुछ मित्र भी हैं गिने-चुने,
गोबिंद भी हैरान हैं ऐसी दोस्ती देख के।
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चाँद पर है लालिमा छाई,
इस लालिमा में मैं डूब ना जाऊँ कहीं।
इससे पहले की साँसे रुक जाएँ मेरी,
निकाल लो मुझे इस सागर से कोई।
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मुखड़े तो ख़ैर बहुत देखे,
जुल्फों में आज बड़ा दम था।
उसकी एक-एक अंगड़ाईयों ने,
मानो हमें होश से पराया कर दिया।
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वो जुल्फ़ें
वो नैनों की मदमस्त चाल
वो मोहिनी हँसी
वो मृगतृष्णा में छिपी तृप्ति, हाय! मेरे यार...
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किस्मत की बात तुम करती हो?
हुस्न जिसके कदमों में है...
ऐसी आभा को पा कर भी,
भाग्य को तुम कोसती हो?
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बुंद-बुंद से जैसे सागर बनता है,
छोटी-छोटी भावनाओं से प्यार उमड़ता है।
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रुह मेरी काँप जाए
साँस छलनी छलनी हो जाए
तब भी तुम्हारी निर्दयता मैं नहीं देखूँगा,
सिर्फ तुम्हारे चित्त में बसे खुद को ही निहारता रहूँगा।
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