कुछ अल्फ़ाज ११: आग्रह
क्यों हो गुमसुम कुछ बात तो करो
क्यों हो गम में बैठी कुछ बयां तो करो
हमें पराया समझा है तो हम चले जाएँगे,
पर थोड़ा भी अपना माना है तो दुःख इज़हार तो करो...
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यूँ रूठा ना करो मेरी बातों पर,
दिल बिखर-सा जाता है...
यूँ रिझा ना करो मेरे अल्फ़ाज पर,
मन कचोट-सा जाता है...
एक बार ही सही कभी मुस्कुरा तो दो
मन प्रफुल्लित हो उठेगा इस नाचीज़ का...
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तू रुक नहीं बस बढ़ता चल
चाहे धरती धरधरा उठे
चाहे अंबर बरस पड़े
चाहे समय परीक्षा ले
चाहे भगवान रहम ना करे
वो दिन आएगा जब वो सब, जो तेरे रास्ते रोके थे;
तेरी वाहवाही करेंगे, तेरे कदम चुमेंगे...
तू रुक नहीं बस बढ़ता चल।
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यूँ ना कहो मुझे चुप रहने
मुझे पता है कोई बात छिपी है।
बता दो मुझमें जानने की ललक है,
नहीं तो मेरे मन के रूठने के आसार हैं।
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अब ज़माना नहीं रहा पहले जैसा
तारीफ़ें कोई देता नहीं...
इसलिए जब करता है तारीफ़ कोई
आँसुएँ खुद-ब-खुद अपना रास्ता है ढुँढ लेती...
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यूँ तो हमें रिझाना आसान नहीं
पर ऐ हुस्न-ए-मल्लिका आज तुझे देख
सच कह रहा खुदा की कसम
इस नाचीज़ की सख्ती भी नरम पड़ गई...
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मैं सोचता नहीं,
बस वक्त के साथ बहते-बहते तो नज़्म आ जाए
वो सामने वाले के दिल में-
दर्ज कर देता हूँ।
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चित्र स्त्रोत: इंटरनेट से।
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