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ख्वाब

किसी कागज के फटे पुराने टुकड़े पर
धुंधली पड चुकी कलम की हो लिखावट जैसे,
कुछ यूं ही तो बचे हैं ख्वाब मेरे।

कच्ची-पक्की, कुछ अध्कच्ची सी रोटी हो जैसे
ना खाते बनती है, ना फेंकते बनती है।

मोह है इनका जो दफन करने नहीं देता,
आखिर कब तक ढो पाऊंगी
इन बेजान कांधो पर ये ख्वाब।

आरजू है जीने की या इक बेगैरत सी जिद्द,
जो बिखर के यों आंखों में चुभते हैं ये ख्वाब।

ना जाने और कब तक साँस अटकी रहेगी इनकी,
ना जीते हैं, ना मरते हैं, ये ख्वाब।।

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