अक्स
ये जो अक्स तेरा,
मुझमें लहू बनके बहता है
कभी मेरी सांसों को रूलाता है,
कभी मेरे दिल को चील की तरह नोचता है
ये बीज जो तूने प्यार से बोया था मेरे भीतर
ये अपनी शाखों से,
जो मेरे जिस्म को खोखला कर जाता है
कुछ नहीं छोड़ता है मेरा मुझमें,
जब भी बहार की सर्द शामों में अंगड़ाई ये लेता है
ये फ़ूल के पत्ते,
जिनका रंग तूने मेरे होंठो को उधारी में दे दिया था
अब इनकी किश्त मेरे लब,
कांटो को चूमके चुकाते हैं
और ना जाने कितनी बार,
तेरे नाम का कड़वा घूट पीकर
खुद को बेहला लेते हैं
कहते हैं मुझसे की नाराज़ है तू,
सो तेरी छुअन की याद भी मुंह मोड़ कर खड़ी है
ऐसे और कई झूठ मेरे अंदर बस्ते हैं,
और इन्ही झूठों का सहारा लिए,
मैं भी दो आंसू तेरी याद में बहा कर,
सोच लेती हूं...
की जैसे तेरा अक्स है मुझमें,
वैसे ही तेरा हिस्सा मैं भी तो हूं?
नींद तो तुझे भी ना आती होगी
थोड़ी सी ही सही,
जान तो तेरी भी जाती होगी।
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