तू किसी रेल सी गुज़रती है (sonakshisrivastava)(2)
तू किसी रेल सी गुज़रती है
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा ठिठुरता हूँ,
तेरी पलकों में छुप के
दिन रात हमारे मुहब्बत के
चर्चे सबको सुनाता, फिरता हूँ.
इस इश्क़ की तन्हाई को समझ पाना
ना था कभी इतना आसान,
पर कोशिश करके दिखाया तुमने
की दूर नही वो नीला आसमान.
जिस दिन लौट के आई तुम
वो थी एक तारों से भरी रात,
पर मुस्कुराहट फैलाई तुमने ऐसी
की चाँद भी ना कर पाया बात.
ज़ुल्फ़ो में उलझी तकदीर की लकीरें
हमारे दिल में मिलती है,
एक ओर को तुमसे जोड़ती
तो दूसरे को हमसे जोड़ती है.
सुना तो तुमने भी होगा यह किस्सा
जिसे मैं इतराता जो फिरता हूँ,
की जब तुम किसी रेल सी गुज़रती हो
तो मैं किसी पुल सा ठिठुरता हूँ.
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