Chapter 22 - Palak (part 3)
हैलो दोस्तों, देरी से नया भाग प्रकाशित करने के लिए माफ़ी चाहूंगी। इसके बावजूद मैंने दिल लगाकर इस चैप्टर को लिखा है। लेकिन फिर भी अगर कोई कमी हो तो प्लीज़ संभाल लेना। और अपने कमाल के एक्स्पीरियंस इस चैप्टर के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर साझा करिएगा।
साथ ही मैं छुपेरुस्त पाठक को भी धन्यवाद करती हूं जो बिना भूले मेरी कहानी पढ़ रहे है। लेकिन अगर आप यूंही गुमशुदा रह जाएंगे तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए प्लीज़ इस कहानी को अच्छी रेटिंग दे और अपनी खुशी तथा अनुभव ज़ाहिर करे। इस असंभव सी यात्रा का हिस्सा बने। एक लेखक काफ़ी मेहनत और लगन के साथ कोई कहानी लिखता है। और आपको उसकी कहानी पसंद आती है फिर भी अगर आप उसके साथ अपनी खुशी साझा नहीं करेंगे तो ये कितनी असंवेदनशील बात होगी। मेरे लिए आपके वोट और कॉमेंट कीमती रहेंगे। इसलिए अपनी खुशी साझा करना बिलकुल न भूले।
आपकी, बि. तळेकर ♥️
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कहानी अब तक: "क्या आप फिर मुझसे मिलने आएंगी, पलक?" उस प्यारी सी बच्ची ने मेरी आंखों में रहस्यमय ढंग से देखते हुए पूछा।
वो अच्छी दिखने में बिल्कुल आम बच्चों जैसी थी। मगर उसकी असामान्य लय में बोली गई बातें और उसके देखने का ढंग मेरे दिल में असहेज भाव जगा रहा था। मगर उसकी भोलीभाली सूरत देखकर मैं उसे चाहते हुए भी मना नहीं कर पाई। और मैंने सर हिलाकर हामी भर दी।
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अब आगे...
बुधवार सुबह 7:00 बजे।
आंखे खोलते ही मैंने ख़ुद को ऊपर के कमरे में अपने बिस्तर पर लेटा पाया, जिसे देखकर मैं सुन पड़ गई। दो दिनों पहले इसी कमरे में मेरे साथ घटी उस भयानक घटना को लेकर मैं अब तक परेशान थी। इसीलिए खुदको एक बार फिर उसी कमरे में पाकर मैं परेशान हो उठी।
मैं घबराकर अपने बिस्तर पर उठ बैठी । तभी खिड़की के काच से आती सूरज की तेज़ चमकती किरणें मेरे चेहरे पर पड़ी। और उसी चमकती किरणों के बीच मुझे एक सुकून का आभास हुआ। इसके अगले ही पल मैंने गौर किया कि अब इस कमरे में मुझे किसी तरह की कोई घबराहट नहीं हो रही थी। और नाहीं मुझे घुटन या डर मेहसूस हो रहा था। उलटा इस वक्त मैं काफ़ी तरोताज़ा और फुर्ती मेहसूस कर रही थी। सुबह के उजाले में मुझे काफ़ी सुकून मिल रहा था। मेरी थकान अब बिल्कुल उतर चुकी थी और मेरे शरीर में ताज़गी भर आई थी।
अगले पल आंखे मसलते हुए जब मैंने सर उठाया तो चंद्र होठों पर अदृश्य मुस्कान लिए बिल्कुल मेरे सामने खड़ा था। खिड़की से आती हल्की सुनहरी धूप उसके अर्धपारदर्शी चेहरे पर चमक रही थी, जो उसे रेगिस्तान में पड़ते मिराज की तरह आकर्षक बना रही थी। उसे अपने सामने पाते ही मेरे होठों पर अपनेआप मुस्कान बिखर गई।
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि जब पिछली रात मैं नीचे सोफा पर सोई थी तो यहां कैसे पहुंची?! क्या चंद्र मुझे यहां लाया था?! मैं इन दोनों संभावनाओं को लेकर असमंजस में थी। लेकिन इसके बावजूद चंद्र की मौजूदगी मेरे चेहरे पर मुस्कान ले आई।
"चंद्र.!" उसे देखते ही मेरे होठों पर उसका नाम उभर आया, "इतनी सुबह तुम यहां?!" और मैंने धीरे से सवाल किया।
"मैं बस देखने आया था कि तुम ठीक हो।" मद्धम गति से मेरे पास आते हुए चंद्र ने कहा।
"मैं ठीक हूं, चंद्र।" सामने दीवार पर टंगी घड़ी में समय देखते ही, "असल में काम का कुछ ज़्यादा ही तनाव है। इसलिए कल मैं बहोत थक गई थी। लेकिन अब मैं बिल्कुल ठीक हूं।" मैंने जल्दी से उठकर अपना बिस्तर समेटना शुरू कर दिया।
तब अचानक, "शुक्रिया, चंद्र..!" अपने काम के बीच मुड़कर पीछे चंद्र की ओर देखते ही मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
"शुक्रिया.?" मेरी बात सुनकर चंद्र सोच में पड़ गया।
"कल तुम मुझे यहां ले आए, इसलिए।" मैंने अपनी बात समझाते हुए धीमे स्वर में कहा और मेरी बात सुनते ही चंद्र ने मुस्कुराते हुए अपनी पलके झुका ली। जैसे वो किसी बात से शर्मा रहा था।
इसका मतलब चंद्र ही कल रात मुझे यहां ले आया था। गनिमत थी कि कल रात मेरे अचानक इस कमरे में आने के पिछे कोई अजीब वजह नहीं थी, जिसका डर मुझे चुभ रहा था। बल्कि उस वक्त चंद्र मेरे साथ था और उसके साथ मैं बिल्कुल सुरक्षित थी। इस बात का ऐहसास होते ही मुझे तसल्ली मिली। इसी दौरान चंद्र की शर्म से झुकी पलके और उसका चेहरा याद आते ही मेरी मुस्कान और खिल गई।
मगर एक बार फिर, मैंने चंद्र से उस रात मेरे साथ घटी उन मनहूस घटनाओं को छुपा लिया। कही चंद्र से इस बात को छुपाकर मैं कुछ गलत तो नहीं कर रही?! इसी तरह उस दिन का ख्याल आते ही बस्ती से यहां आने तक हुई एक-एक घटनाएं मेरे दिमाग़ में फिर दस्तक देने लगी। इसी बीच अचानक आर्या को लेकर मेरे मन में आए एक ख्याल ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, जिसे जानने के लिए मैं बेकरार थी।
"चंद्र? मुझे तुमसे... आर्या के बारे में कुछ पूछना था।" पीछे पलटते ही, "तुम्हें तो पता है कि उस दिन आर्या कितना ज़ख्मी था। उसका कितना खून बेह गया था।" सोच-विचार करते हुए, "वो... काफ़ी कमज़ोर था और उसे काफ़ी तकलीफ़ हो रही थी। लेकिन कल जब मैं उसे ऑफिस में मिली तो वो ठीक लग रहा था!? और... आश्चर्य की बात ये है कि उसके ज़ख्म भी काफ़ी हद तक भर चुके है!?" अपने सवाल का जवाब जानने की उम्मीद लिए मैंने चंद्र की ओर देखा।
"जब एक आत्मा किसी को घाव दे सकती है तो वो उसे ठीक भी कर सकती है।" मेरे अनकहे सवाल का जवाब देते हुए चंद्र ने सहेजता से कहा। और चंद्र के मुंह से उन शब्दों को सुनते ही मैं बिल्कुल स्तब्ध रह गई।
इसी दौरान बीते दिनों पर गौर करते ही, "इसका मतलब... जब मैं तुम्हें जानती तक नहीं थी तब से तुम मेरा खयाल रखते आए हो!? शुरूआती दिनों में जब भी मुझे चोटे आती थी तब तुमने ही उन चोटों को ठीक किया था?!" आश्चर्य में मेरे मुंह से निकल गया।
मगर चंद्र ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया। मेरी बात सुनकर उसने अपनी नजरे झुका ली। और खामोश होकर किसी सोच में डूब गया।
"असल में, उस समय लड़ाई के दौरान आर्या को गंभीर चोट आई थी। उसकी हालत काफ़ी नाजुक थी।" मेरी बात को नज़रंदाज़ कर, "उसके हाथ और सर के पिछले भाग में गंभीर घाव बन चुके थे। और उसका खून भी काफ़ी बेह चुका था। लेकिन अगर तुम्हें इस बात का पता चलता तो तुम घबरा जाती। इसलिए तुमसे ये बात छुपानी पड़ी।" चंद्र ने बिल्कुल सहेज भाव से कहा।
उस वक्त चंद्र की आवाज़ में हल्की हिचकिचाहट और तनाव था। लेकिन उसे इस बात पर कोई गर्व या घमंड नहीं था कि उसने किसी की जान बचाई थी।
"शायद आर्या के नाज़ुक हालातों के बारे में न बताकर तुमने अच्छा ही किया।" दो पल सोचने के बाद, "हो सकता था उस वक्त आर्या की बिगड़ती स्थिति के बारे में जानकर मैं परेशान हो जाती।" मैंने धीमे से कहा।
"आई एम सॉरी, पलक। मैं तुमसे ये छुपाना नहीं चाहता था। लेकिन हालात ही कुछ ऐसी थे कि ये बता नहीं पाया।" मेरे सामने आते ही चंद्र ने माफ़ी मांगी। जो मुझे अच्छा नहीं लगा।
ज़ाहिर था कि उसका इसमें कोई दोष नहीं था। फिर भी उसने बिना कुछ कहे मुझसे माफ़ी क्यों मांगी?! जब उसका कोई दोष था ही नहीं तो उसे माफ़ी मांगने की क्या जरूरत थी?!
"नहीं, चंद्र। प्लीज़ तुम मुझसे माफ़ी मत मांगो। तुमने जो किया वो बिल्कुल सही था। और जब तुम्हारा कोई दोष ही नहीं तो तुम्हें माफ़ी मांगने की क्या ज़रूरत है।" चंद्र की तरफ़ देखते हुए मैंने कहा।
मेरी बात सुनने के बाद चंद्र कुछ नहीं कह पाया। और इसके आगे मुझे भी उससे कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई। पता नहीं क्यूं लेकिन आज चंद्र के बर्ताव में कुछ असहेज सा था, जो मुझे खल रहा था।
इस बातचीत के बाद हमारे बीच एक ख़ामोशी छा गई। और मैं भी चंद्र से किसी सवाल के जवाब की मांग किए बीना अपना काम करती रही। चंद्र अब जा चुका था और मैं घर का काम निपटाते ही सलोनी के साथ ऑफिस लिए निकल गई।
घर से निकले वक्त आखरी बार मैंने छत की ओर मुड़कर देखा। और चंद्र को अपनी तरफ देखते हुए पाते ही मेरे होठों पर हल्की मुस्कान आ गई। उससे बीना कुछ यूंही चले जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मगर अब उसे वहां पाते ही मुझे अच्छा लग रहा था। इसी दौरान सलोनी से नज़रे बचाकर चंद्र को हाथ हिलाकर बाय कह कर मैं आगे बढ़ गई।
दोपहर 3:30 बजे।
लंच टाइम ख़त्म होने के बाद कृतिका मैडम ने मुझे और सलोनी को अपनी केबिन में बुलाया था। इसलिए अपना काम ख़त्म होते ही मैं सलोनी के साथ मैडम के ऑफ़िस में गई।
अंदर जाते ही मैंने देखा कि आर्या भी वहां पेहले से मौजूद था, जो मैडम के सामने कुर्सी पर बैठा था। हमारे अंदर जाते ही उसने हमें पलटकर देखा और अगले ही पल खड़ा हो गया।
"गुड ऑफ्टरनून, मैडम!" सलोनी ने अभिवादन किया और मैंने भी उसके पीछे खड़े होकर अभिवादन में बस धीरे से अपना सर हिलाया।
उसी बीच मेरी नज़रे आर्या पर गई जो हमारी एक तरफ़ खड़े होकर हमें देख रहा था। उसकी नज़रे मुझ पर ही ठहरी थी। मेरे देखते ही उसने हल्की मुस्कान के साथ अपना सर झुकाया। उसे देखकर मैं कुछ नहीं बोल पाई। इसलिए मैंने उसके जवाब में बस यूंही सहेज भाव से हल्के से सर झुकाया और तुरंत अपनी नज़रे आगे की ओर मोड़ दी।
"आपने हमें बुलाया था?" इसी बीच मैंने सलोनी को कहते सुना।
"येस। कम। प्लीज़ सीट।" मैडम अपना काम करते ही खड़े हुई और केबिन में बने सिटिंग एरिया की ओर बढ़ गए।
पलक • आर्या • कृतिका मैडम • सलोनी
सिटिंग एरिया में जाकर मैडम के सोफा पर बैठते ही हम तीनों भी उनके सामने रखें सोफ़ा और सोफ़ा चेयर पर बैठ गए।
"मैंने आप तीनों को इसलिए बुलाया है कि हर साल की तरह इस साल भी हमारी कंपनी के सभी सदस्यों का सेमिनार होने वाला है। इस सेमिनार में अब तक सभी प्रोजेक्ट्स के ऊपर और फ़्यूचर में आने वाले नए प्रोजेक्ट्स को लेकर डिशकसन किया जाएगा। अब तक कितने प्रोजेक्ट्स से प्रॉफिट हुआ है, कितना लॉस हुआ है ये सब ऐनलाईज़ किया जाएगा। अगले हफ़्ते सेमिनार शुरू होने वाले हैं। और ये एक हफ़्ते तक चलेंगे।" मैडम ने हमें बुलाने का कारण बताते हुए होने वाले सेमिनार की जानकारी दी।
"येस, मैम।" सलोनी ने जवाब में कहा।
"आर्या, सलोनी, तुम हमारे एक्सपीरियंस्ड एंप्लॉयस हो। इसलिए तुम दोनों इस सेमिनार से अच्छी तरह वाकिफ होंगे।" सलोनी और आर्या की ओर देखते हुए, "लेकिन पलक ने हमें इसी साल जोइन किया है। इसलिए पलक को इस सेमिनार के लिए तैयार करने की ज़िमेदारी तुम दोनों पर है।" मैम ने गंभीर भाव से मेरी ज़िमेदारी उन दोनों को सौपी।
"सोर, मैम।" मेरी ओर अपनी गहरी आखों से देखते ही, "यकीन रखिए, इस साल भी हमारी टीम बाकी शहरों की टीम से अच्छा परफॉम करेगी।" आर्या ने मेडम को यकीन दिलाते हुए कहा।
आर्या की सेहमति में सर हिलाते ही, "ऑल द बेस्ट, गईस। ऐंड ऑल द वेरी बेस्ट, पलक। नाउ यू कैन गो बैक टू योर वर्क।" मैम ने हम सब का उत्साह बढ़ाते हुए सहेज मुस्कुराहट के साथ कहा।
सेमिनार के बारे में जानकर मेरे मन में कई सवाल उठने लगे। और थोड़ी घबराहट भी होने लगी। मगर मैंने अपनी परेशानी को अपने चहरे पर नहीं आने दिया।
मेडम के केबिन से वापस अपनी जगह पर लौटते ही मैं फ़िर से अपना प्रोजेक्ट पूरा करने में लग गई। इसी दौरान काम करते हुए सलोनी ने मुझे सेमिनार के बारे में काफ़ी सारी जानकारी दी। और ये भी बताया कि इस मीट के आखरी दो दिनों में अवार्ड फंक्शन और ग्रैंड पार्टी होगी।
इसी तरह आफिस में हमारा एक और दिन बीत गया। और सलोनी के साथ मैं महल पहुंची।
रात 8:30 बजे।
रोज़ की तुलना में अपने घर के सारे काम जल्दी निपटाते ही मैं अपनी प्रोजेक्ट फाइल लेकर हॉल में बैठी थी। मेरे सामने टीवी पर कोइ प्रोग्राम चल रहा था। मगर मेरा ध्यान अपने काम पर था।
उसी समय चंद्र की मौजूदगी मेहसूस होते ही मैंने सर उठाकर देखा। उसे देखते ही सेमिनार और प्रोजेक्ट को लेकर मेरी सभी उलझने एक पल में गायब हो गई।
चंद्र के आते ही मैंने आज ऑफ़िस में हुई सभी बातों के बारे में बताया। उसके बाद मैं चंद्र के साथ मिलकर अपने अधूरे प्रोजेक्ट को पूरा करने में जुट गई। मेरी इतनी कोशिशों के बावजूद मैं ये प्रोजेक्ट जल्दी ख़त्म नहीं कर पाई। इसलिए मुझे इस बात का अफ़सोस था कि आज भी हम अगली कहानी शुरू नहीं कर पाए।
मगर मैंने मन बना लिया था कि आज किसी भी तरह मैं इस प्रोजेक्ट को पूरा कर दू। ताकि कल से मैं और चंद्र अगली कहानी शुरू कर पाए। और इसी कोशिश में मैं लगातार जुटी रही।
सुबह 2:30 बजे।
अपने काम के बीच अचानक सर उठाकर देखते ही मैंने एक बार फ़िर खुदको वही शाही नीला लिबास पहने उसी विरान गलियारे में खड़ा पाया। इस तरह खुदको फिर उसी जगह पाकर मैं परेशान हो गई।
मैं एक बार पेहले भी यहां आ चुकी थी। लेकिन इस तरह अचानक एक बार फ़िर उसी जगह मेरा मौजूद होना मुझमें शक पैदा कर रहा था। अब मुझे इस जगह से डर लग रहा था।
उस विशाल शाही गलियारे में फैली हल्की नीली रोशनी और धुंध शरीर में कपकपी उठा रहे थे। वहां फैली ठंड और सन्नाटा मेरे हाथ-पैर को जमा रहे थे। उस फैले सन्नाटे को मेहसूस कर मुझे यहीं लग रहा था मानो ये सन्नाटा आंधी आने के पहली की ख़ामोशी थी।
तब अगले ही अपने कपकपाते पैरों को ज़ोर देकर धकेलते हुए मैंने आगे बढ़ना चाहा। और ठीक उसी वक्त मैंने अपने पिछे किसीको भागते हुए मेहसूस किया। मैं जैसे ही हड़बड़ाहट में पिछे पलटी वैसे ही एक 9-10 साल की छोटी बच्ची भागते हुए मेरे पास आकर रूकी।
उस बच्ची ने उसी किस्म का पीला फ्रॉक पहन रखा था जैसे पिछली बार उस बच्ची नैना ने पहन रखा था। इसी के साथ ये बच्ची भी शक्ल-सुरत से दिखने में काफ़ी हद तक नैना जैसी थी। मगर उन दोनों में फ़र्क बस इतना था कि अभी मेरे सामने खड़ी बच्ची की उम्र नैना से कुछ साल ज्यादा थी।
"आप वापस आ गई?" मेरे पास आते ही उसने सवाल किया।
उससे हैरत भरी निगाहों से देखते हुए, "हां, मगर मैंने आपको पहचाना नहीं?!" मैंने सवाल किया।
"क्या आपने मुझे पहचाना नहीं? मैं... नैना हूं।" उस बच्ची ने मुस्कुराकर सवाल किया।
"क्या नैना..." उसका जवाब सुनते ही चौकते हुए मैंने दोहराया।
"हां, नैना। भूल गए! कुछ ही समय पहले हमारी मुलाकात हुई थी।" उसने और क़रीब आकर कहा। उसकी मुस्कुराहट अब भी कायम थी।
लेकिन मुझे अच्छे से याद था कि हम कुछ समय पहले नहीं बल्कि कल ही मिले थे। और इतनी जल्दी ये लड़की 4-5 साल बड़ी कैसे हो सकती थी?! क्या ये मेरा कोई भ्रम था? या कोई सपना, जो मुझे दिमागी रूप से कमज़ोर कर रहा था?!
"हां।" असहमत होने से बावजूद मैंने उस बच्ची की बातों में हामी भर दी।
"आपने वादा किया था, इसलिए आई हो न?" उसकी बात पर सर हिलाते ही, "तो आप चलिए मेरे साथ। मैं आपको कुछ दिखाना चाहती हूं।" वो मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचकर गलियारे से बाहर ले आई।
गलियारे से बाहर दूर तक घास का बड़ा मैदान था। मगर ज़मीन पर हर कहीं हरी घास फैली होने के बावजूद उनका रंग फीका पड़ चुका था। वहां उगी घास में ज़रा भी ताज़गी या नमीपन नहीं था। आंखों के सामने खुला घास का मैदान होने के बाद भी मन को कोई सुकून नहीं मिल रहा था। बल्कि वहां अजीब तरह की मनहूसियत छाई थी।
मुझे नैना के साथ वहां से गुजरने में थोड़ी घबराहट हो रही थी। मगर फ़िर भी नैना मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचकर अपने साथ ले जा रही थी। इसी तरह मुझे खींचते हुए वो मुझे एक बड़े स्मारक के पास ले आई।
मैदान से बाहर कुछ दूरी पर एक बड़ा संगमरमर का स्मारक बना हुआ था। "महाराज श्री जय सिंह शांगवे की याद में!" स्मार्क के सामने जाते ही मैंने उस पर बनी लिखावट पढ़ते हुए कहा।
"हां, ये मेरे पिताजी थे। वो मुझसे बहोत प्रेम करते थे।" स्मारक की ओर गहरी नजरों से देखकर गंभीरता से कहते हुए उसकी आंखों से आंसू टपक पड़े। लेकिन मैं सिवाय खामोशी से देखने के ओर कुछ नहीं बोल पाई।
"वो मेरे लिए सब कुछ थे। मगर आज मैं बिल्कुल अकेली हूं।" नैना ने सिसकते हुए धीमे से कहा।
नैना की बाते सुनकर और उसकी हालत देख मेरा भी मन भर आया। जिस तरह वो अपने पिता के लिए तड़प रही थी ठीक उसी तरह मैं भी अपने परिवार के लिए तड़पती रही हूं। वो भी अपने पिता को खोकर अकेला महसूस कर रही थी। उसी तरह अपने परिवार के जाने के बाद मैं भी बिल्कुल अकेली पड़ चुकी थी। इसलिए उसे कितनी तकलीफ़ होती होगी इससे मैं अच्छी तरह वाकिफ थी।
"वो आज भी तुम्हारे साथ है। तुम्हारे अंदर।" अपने बाबा की बातें याद आते ही मेरे मुंह से वो शब्द निकल गए और मेरी आंखों से आंसू छलक गए।
"क्या आप मानती है कि इंसान के चले जाने के बाद भी उनका प्रभाव कायम रहता है?" मेरी तरफ़ मुड़ते ही नैना ने गंभीरता से सवाल किया ।
उस वक्त उसकी आंखों में एक अजीब सी कशमकश थी। मानो उनमें किसी बात का दुःख और रोष एक साथ बसा हो। जैसे कोई समस्या उसे तकलीफ़ पहुंचा रही थी वहीं दूसरी ओर कोई बात थी जो उसे गुस्सा दिला रही थी।
गहरी धारणाओं के बीच, "हां।" मैंने बस एक लब्ज में जवाब दिया।
"तो क्या आप वो हासिल करने में मेरा साथ देंगी जो मेरे लिए ज़रूरी है?" नैना ने स्मारक और मुझे देखते हुए मांग की। मगर मैंने हिचकिचाते हुए अंजाने में सिर्फ अपना सर हिलाया।
"वादा करो, मेरा साथ दोगी?" उसने कड़े शब्दों में फिर दोहराया। और जवाब पाने तक तेज़ नज़रों से मुझे लगातार घूरती रही।
उस बच्ची का स्वभाव और बर्ताव मुझे ही खटक रहा था। मगर चंद्र की सीख याद आते ही मेरा दिमाग़ सतर्क हो गया। इसलिए अब मैंने आगे और कुछ भी न बोलने का फैसला किया।
सावधानी बरतते के बावजूद न चाहते हुए भी, "वादा..." मेरे मुंह से वो शब्द धीमी आवाज़ में निकल गया।
उसी समय मेरा जवाब सुनते ही उस बच्ची ने काफ़ी रहस्यमय ढंग से अपनी गूढ़ नज़र से मेरी और देखा। और उसके होठों पर असाधारण मुस्कान फैल गई।
क्रमश:
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पलक के जीवन में काफ़ी कुछ एकसाथ चल रहा है। जज़्बातों के उतार-चढ़ाव, रहस्यों का जाल और बेखबर प्यार पलक की जिंदगी में एक साथ दस्तक देने वाले हैं। आने वाले सभी चैप्टर्स और भी रहस्यमय से भरपूर, अजीबोगरीब और डरावने होने वाले है।
* क्या पलक अपने रंग बदलते जज़्बातों का तनाव और एक साथ घट रही इन विचित्र घटनाओं का दबाव सह पाएगी?
* क्या होगा आर्या और पलक की कहानी अंजाम?
* क्या रहस्य है पलक के खयाली खलल के पीछे का सच?
(देखते है मेरे प्यारे दोस्तों में से कौन-कौन इस सवाल का अंदाज़ा लगा पता है? ☺️)
जानने के लिए अगला भाग ज़रूर पढ़ें।
आने वाला अगला भाग और भी डरावना और दिलचस्प होने वाला है। अगले अपडेट के लिए हमसे जुड़ें रहे और हमें अपने बहुमूल्य अभिप्राय ज़रूर दे। साथ ही अगर आपको ये कहानी पसंद आए तो इस कहानी पर वोट, कमेंट कर मुझे प्रोत्साहन भी ज़रूर दे।
🙂🙏🏻💖
अपना दिल थाम कर रखिए क्योंकि अगला सनसनीखेज भाग जल्द ही प्रकशित होगा।
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