कुछ अल्फ़ाज ३२: जज़्बात
एक तुम हो जिसे मल्लिकाएँ चाहती फ़िर रहीं हैं,
एक हम हैं जिसे राह चलता मुसाफ़िर तक तकता नहीं।
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छिपे हुए जज़्बात
क्या ख़ाक माहौल बनाएँगे!
रहने दो अठख़लें ना लगाओ;
गलत निकले तो वो सब मख़ौल उड़ाएँगे।
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जिनसे चाह नहीं थी वे इश्क़ लड़ाते रहे,
मैंने आँखें ना फ़ेरी...
जिनसे बेइंतहा चाह थी उन्होंने देखा तक नहीं,
मेरी आँखें इंतजार में चकनाचूर हो गई...
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दो शब्द क्या बोल दिए नज़्मों के-
यह तो इश्क़ ही समझ बैठीं।
गुस्ताख़ी तो देखो उनकी,
सिनाज़ोरी तक करने लगीं।
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डबी-डबी ख्वाहिशें बहुत सताती हैं।
दिन हो या रात चैन से कहाँ जीने देती हैं?
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यूँ ही ना नज़रअंदाज करो इस नज़्मे को,
एक कवि का दिल दुःखा के क्या हासिल होगा?
हिंदी मोहब्बत की भाषा है,
नहीं भी आती हो तो भी सुनने को दिल चाहता होगा।🤗
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एक अनजान दोस्त से हुई गुफ़्तगू को पंक्तियों में समेट तो दिया,
पर अब वह मित्र है कहीं भी नहीं मिल रहा।
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कुछ पल की ही हमारी गुफ़्तगू
पर वापस आपको पढ़ के कुछ अपना महसूस हुआ।
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आगे बस अंधकार है
उजाले की कोई आशा तक नहीं।
तब एक अप्सरा आती है उम्मीदें लेकर,
पर मन अब बंधनों में बंधने को राज़ी नहीं...
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चित्र स्त्रोत: इंटरनेट से।
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