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वो बीती हुई नजरें

यह पंक्तियां मेरे प्रिय मित्र श्री अमन गुप्ता जी, (FIR3FR0ST) की किताब, 'Woh Beetin Hui Nazarein' पर आधारित है।
ये उन्हें मैं एक भेठ स्वरूप देना चाहती हूं, आशा है आपको ये पसंद आए।

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'पहली दफा' जब आपकी शायरियां अलट पलट कर देखी तो लगा की वे कुछ इशरे कर रही हैं,
'वो ईशारे' जिन्हें हम उनके साथ बांटने के ख़्वाब देखते थे,

'वो ख़्वाब' जो दिल के किसी कोने में आज भी जिंदा हैं।
उन ख्वाबों में उनके साथ हुई 'वो बातें',
आज भी याद करने पर 'वो पल' वही ठहर जाते हैं,

'वो लम्हे' थम से जाते थे उन्हीं ख्वाबों के सहारे
मैंने इज़हार करने की कोशिश की
'वो इज़हार' जो असल में कभी हुआ ही नहीं
'वो सफर' जो साथ तय करना चाहा था
उस सफर की शुरुआत ही नहीं हो पाई
आख़िर होती भी कैसे?

उनके सामने अल्फाज़ मानो बर्फ़ हो जाते थे
'वो अल्फाज़' जो आज आप तक इतनी आराम से सुन पा रहे हैं,
उनकी 'वो बीति हुई नजरों' ने  खरिज कर दिया था।

-लिपि

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