पत्थर दिल
माना पत्थर दिल हो चुकी हूं मैं,
मगर दर्द मुझे भी होता है।
ठंड में तुम्हें कांपता हुआ देख,
आज भी मेरा दिल सर्द होता है।
पास नहीं हूं तुम्हारे,
इससे क्या फर्क पड़ता है।
अब कैसे यह मत पूछना,
क्योंकी तर्क काफ़ी दिए हैं तुम्हें।
ना किए मैंने कोई सवाल,
ना मांगा तुमसे कोई जवाब।
गिनते गिनते थक गई मैं,
मिले ज़ख्म मुझे बेहिसाब।
छिपा ना सकी,
दिए तुमने इतने आंसू।
सोचा था, तुम मुझे खुश रखोगे,
ग़लत थी मैं जो रखी तुमसे यह आर्ज़ू।
जहां तुमसे दूर रहने के बारे में सोचकर,
मेरा बदन डर से कांप उठता था।
वहीं आज,
तुमसे अपनी दूरी आंकती हूं।
तुम भी जान लो कि,
पत्थर दिल हो चुकी हूं मैं,
हां दर्द मुझे भी होता है,
परन्तु, उस दिन तुम्हें ठंड में कांपता देख,
मेरा दिल सर्द नहीं हुआ।
अनजान हूं अपनी इन चेष्टायों से,
पता नहीं, यह पूर्ण हैं, या अर्ध हैं।
शायद, सच में पत्थर दिल हो चुकी हूं मैं I
- लिपि
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